धरती गोल हे, जिहाँ ले रेंगे रहिबे आखिर म उहेंचे पहुँच जबे। ये गोठ आपसी म बरोबर वाले मन संग करे के हरे। बोमियावत हाँका पारे माने लइका मन तुरत गुगली प्रष्न मार देथे – धरती गोल हे त हमन उन्डन-गिरन काबर नहीं ?
कहिबे – धरती के गुरूत्वाकर्षण शक्ति के सेति हमन नइ गिरन-उन्डन।
धरती के गुरूत्वाकर्षण शक्ति के सेति हमन नइ गिरन, त चिरई मन कइसे उड़ा जथे, जिहाज मन भूइँया म काबर नइ गिरय, नान्हे-नान्हे चँदैनी मन ओतेक दुरिहा काबर हे, वोमन काबर नइ खींचावय ? – ले बेटा, यार्कर अब। अपन आप ल जादा हुसियार समझथस न।
आखिर म हपटके गिरबे अउ भूंइँये म परबे। लहुटके बुद्धु घर को आए। देर आए दुरूस्त आए, चल लहुटे तो भला। बिहनिया के भुलाए सँझा घर आ जाय त वोला भुलाए नइ काहय।
आजकाल परिवार, देष, समाज म इही होवत हे। पहिली गाँव म काकरो घर पूजा-पचिस्ठा, बर -बिहाव, मरनी-हरनी होवय त सब ल बइठारके खवावय। पारा भर के मनखे राँधे-गढ़े अउ खवाए -परोसे बर सकेला जाय। लइका मन दऊँड़- दऊँड़ के पानी पियावय। कतको बाटुर, सगा -सोदर आवय। सबो के पूरति राँधे-गढ़े बर बर्तन -भाँड़ा सकेला जाय। ये ह वो समे, समाज अउ संगठन के सु-प्रबंधन के पोठ उदाहरण हरे। समे अउ समाज विकास के पाँख का लगाइस, हवा म उड़ाए लगिस।
अगास के उड़इया चिरई तको एक पइत भुइँया म पाँव रखथे।
होइस उही। विकास के जींस मारे मनखे बइठ के खाए नइ सकिन। चकाचौंध के चमचमावत चस्मा पहिरे जवान परोसे बर लजाए लगिन। ईर्ष्या, द्वेष अउ भेदभाव ह समाज के एकता अउ संगठन के लाड़ू ल लतिया के फोर दिस, त प्लास्टिक ह हरही गाय कस मुड़ ल पेलत समाज म हबरगे।
बंबरी के पेड़ लगाबे, आमा कहाँ ले पाबे। प्लास्टिक ह अपन रूप ल जब देखाइस। समे, समाज अउ देष अकबकागे। प्लास्टिक ह पर्यावरण ल पंगु बनाइस ते बनाइस, समाज ल लीले बर सुरसा बनके मुँह ल फार के अँड़ियागे।
मनखे के आँखी उघरगे।
अब लोगन मानत हे कि प्लास्टिक के उपयोग नइ होना चाही। प्लास्टिक के जगा कपड़ा या कागज के झोला होना चाही। काहत हे – अब समाज म बर्तन भंडार राखे के जरूरत आन परे हे।
लहुटो, लहुटो। गँवार मनखे विकास के सुवागत करे बर तियार हवय। आवव गाँव के रीत-रिवाज, समाज बेवस्था अउ प्रबंधन ल अपनावव। इही म सबो के भलई हे।
मोला जतका भरोसा हे ओकर ले आगर अगोरा हे। अइसेनेहे समाज म मरनी-हरनी म पंगत, बर -बिहाव म दहेज के ये दानव एक न एक दिन पटपट ले मर जही।
जय जोहार!!
धर्मेन्द्र निर्मल