इतवारी: बटकी म बासी अउ चुटकी म नून !!

बटकी म बासी अउ चुटकी म नून
मैंहँ गावथौं ददरिया तैं कान देके सुन रे, चना के दार
चना के दार रानी, चना के दार राजा
चना के दार गोंदली कड़कथे रे
टुरा हे परबुधिया होटल म भजिया धड़कथे रे …..

येला सुनके कतकोन जहुँरिया संगवारी मन हँ तइहा के बालापन बेरा म लहुटगे होही अउ बटकी के बारा म नून रखे बासी बोजत सुरता के उलानबाँटी खेले लगे होही। अभीन के परबुधिया मन बर तइहा के बात ल बइहा लेगे। नान्हे लइका खेलत-कूदत, देखत-सुनत, संगी-संगवारी अउ तीर-तखार के बोली-बतरस अउ रहन -सहन ल अपना-अँगोछ लेथे।
मनखे के रहन-सहन, खान-पान, बोली -बतरस अउ पहिरावा-ओढ़ावा हँ एक समाज ले दूसर समाज म अइसेने खेलत-कूदत, मेल -मिलाप ले संचरथे। संगत के असर, जादा नहीं ते थोरहे।
पढ़त पइत संगी-जहुँरिया एक दूसर ल कुड़कावत कहन- ‘अरे ! तैं का जानबे रे बोरे-बासी खवइया।’
इही नान्हे-नान्हे लइकई गोठ ल लेके कुछ चुचरू-बुचरू सयाणा मन हमार सियान मन ल कुड़काए लगिन। सियान मन सहिथे तेकर लहिथे काहत लहा लिन। हमन परबुधिया भइगेन। होटल म हदर-हदर भजिया धड़के लगेन, अमटहा मैगी म मइन्ता भर मजा उड़ाए लगेन।
ये मुड़पेलवा मैगी कोन जनी काके बने रिथे। कब के बने रिथे। सनपना म सकपकाए मुँह लुकाए घुसरे रहिथे अउ बड़ा टेस मारथे।
फेर आज ले मोला ये समझ नी आइस कि रतिहा के बासी ल गाँव अउ गँवार के जिनिस कहइया मन बर तीन चार दिन के फुलफुलहा खमीर उठे फफुँदियाए बसियाहा ब्रेड (डबलरोटी) कइसे ताजा हो जथे। रात भर के बोरे पिसान ले बने बोजर्रा दोसा काबर, कतेक अउ कइसे पुस्टई हो जथे।
हमर सियान मन बासी खावत तरगे। उन्कर तीर कभू बड़का बीमारी बेलबेला नइ पाइस। उन आठो काल बारो महीना बासी खाके सरीदिन टन्नक रिहिन। हम परबुधिया रतिहा के बने-बाँचे गहूँ के रोटी ल तको बासी हे कहिके नइ खावन। उही सेति आज के पीढ़ी पुलपुलहा-पिनपिनहा अउ पोंगा कस पँगुरहा होगे हे। थोरके म बहुते काँखे लगथे। बीपी, सुगर, डाइबिटिज अउ नइ जाने अइसनेहे कतको बीमारी के फाँदा म फँदाए, गोली -गाठा म लदाए जिनगी के बोझा ल हँफर-हँफर के डोहारत हे।
सही म देखे जाय त मैगी अउ ये किसम -किसम के खई-खजाना अनदेखना, कायर अउ जलनकुकड़ा बेवसाय के कीरहा चाल हरे। जऊन विग्यापन के दुस्टई देखावत, बासी के पुस्टई ल बंचक अउ बस्सावत धंधा के बाँगा म बोर दिस। गंदा होय के मंदा होय, धंधा, धंधा होथे। धंधा के ये उभरौनी म लालची मन दाहरा के भरोसा बाढ़ी खावत देष, दुनिया अउ समाज ल दफोड़त रहिथे।ये भकमुड़वा धंधा हँ जयचंद ले कम नई होवय। जब देखथे अपन बढ़वार देखथे। देष, समाज अउ विकास ले येला कोनो मोह, मया अउ मतलब नइ होवय। इतिहास साखी हवय जयचंद मन के सेति ही कतकोन बड़का, हुँड़का अउ मुड़का मन पोंगा-पँगुरहा लहुटगे।
बेरा कतकोन बंचक, पंचक अउ नवटप्पा बनके तप लेवय, सत सरीदिन पोठ अउ ठाहिल रहिथे। ये बात सिध होगे कि जऊन बासी ल गरीब, गँवार अउ घोंचू मन के खाए के जिनिस काहय उही बासी ले बड़का कोनो पोठहा नास्ता नइ हे।
आज अमेरिका घलो मानगे, जानगे अउ तान तको गे। हमरो गरब -गुमान तनियागे।
सुनके अबड़ खुसी होइस। बब्बा हो ! तुँहर जय बोलाववँ, हब्ब, हब्ब। तुँहर नाक तो सरीदिन ऊँच रिहिसे। नकटा, बैचकहा अउ परबुधिया हम भए रहेन। जऊन तुँहर बनाए रद्दा म चल सकेन न ओकर मान रख सकेन, विकसित, सुजानिक अउ वैग्यानिक कहावत हवन। तुँहर अबोला ग्यान- विग्यान अउ नेंग, नीत-नियम के आगू म हमर टिंगटिंगावत उड़न खटोला तकनीक तोला भर के बरोबर हे।
रतिहा के भात, पानी डारके बोरे ले बिहिनिया बासी कहाथे। येला चिटिक नून डारके दही, गोंदली जउ चटनी संग खाए म बड़ मजा आथे।
आमा के अथान अउ दही होेगे त तो झन पूछ, बासी हँ अटारीवासी मनके छप्पनभोग के तको राजकुँवर बन जथे। राजकुँवर तो हे फेर अतेक अप्पत, अटेलिहा अउ अहंकारी तको नइहे कि दही, गोंदली अउ अथान के सैनिक संग नइ रहिही त जिनगी के जंग म जोजवा पर जही। जुच्छा नून संग तको बासी सुवाद अउ सेहत बर सरस मथुरा-काषी हे।
बासी म विटामिन 11 अउ 12 के तो नंगते पौ-बारा होथे। टरटर -टरटर ले बासी रटरट -रटरट ले देंह-पाँव। एकर खाए ले पाचन क्रिया पोठ होथे अउ अचपचन नाम के बीमारी किरिया खाके दूरिहा जथे। सधारन भात ले 60 प्रतिषत जादा ताकत बासी ले मिलथे। बासी के ताकत के आगू म फल-मेवा मन मुँह ताकत अगल-बगल झाँकत बइठे रहि जाथे। बीपी अउ हाइपरटेंसन के टेंसन पेंसन झोंके बर रेंग देथे। बासी खाए ले ओंट नइ फटय अउ शरीर के ठंडक नइ हटय। येमा बिटामिन, कैल्सियम, आयरन अउ पोटेषियम ठोमहा-ठोमहा टोम-टोम ले भराए रिथे।
त चलव गुरू ! बासी दमोरते हैं।

जय जोहार!!
धर्मेन्द्र निर्मल

लउछरहा..