इतवारी: बासी ब्वाय !

गाँव म एक दिन शहर ले एक झिन लइका आइस। दिन बूड़गे राहय, ओकर आँखी ले चश्मा नइ उतरे रिहिस हे। मैं पूछ परेवँ – ‘यहा कम उमर म आँखी के अपरेशन होगे बेटा ?’ वोला कुछु नइ बोलत देखके बाजू म ठाढ़े संगवारी ले पूछ परेवँ- ‘भैरा-कोंदा घलो हे का जी ?’ संगवारी मन खलखला के हाँस भरिन- ‘नहीं गा, कान म ईयर फोन ठेंसाय हे, त काला सुनय।’ ओतका म वो लइका खखुवागे- ‘ये, काबर हाँसते हो, बइहा गए हो का ?’ मैं सफई देवँ – ‘नहीं बेटा ! वइसन बात नइ हे।’
एक ठिन मुक्का प्रश्न उछालके वो मोर कोति देखे लगिस-‘त ?’
‘काबर नइ बोलय कहेवँ, त एमन बताइन कि ईयर फोन के सेति नइ सुनत हे।’
‘त एमा दाँत निपोरे वाली क्या बात है ?’ कुछ रूक के फेर खोदियाइस -‘इसके आगू भी तो कुछ गोठिया रहे थे न ?’
‘मैं पूछेवँ, यहा कम उमर म आँखी के अपरेशन होगे बेटा ?’
‘क्या गँवार टाइप गोठियाते हो अंकल ! ये शो-पीस चश्मा है।’
‘ये तो करिया दिखथे का गा ?’
‘चश्मा करिया है तो क्या हुआ, इससे हमरा पोजीशन व्हाइट एण्ड ब्राइट दिखता अउर बनता है।’
‘हम का जानी बेटा ! गलती होगे, माफी देबे।’
‘लेकिन इहाँ काबर हाँसते हो ?’ हाँसना है त, लाफिंग क्लब जाया करो, लॉफ्टर शो देखते टाइम हाँसा करो। अदर-कचर कहीं भी हाँसने से लाइफ में सब खदर-बदर हो जाता है।’
हमर सबो के बीच एक ठिन दुुमुँहा मुक्का शब्द खड़ा होगे। दूनो कोति अंगरी देखाए लगिस -‘कइसा कोदो एण्ड गँवार मनखे है यार !’
फेर थोरिक देर बाद वो लइका पूछथे- ‘अंकल ! इहाँ कोनो टूरा अच्छा वीडियो शूट कर लेता है क्या ?’
‘हाँ, कर तो लेथे। मोरे बेटा हे एक झिन।’
‘सोच समझके बताना अंकल। गाँव के टूरा लोग दलिद्दर होते है अउर लेदरा टाइप शूट करते हैं।’
सोचे लगेवँ- गाँवे ले शहर जनमे हे बेटा। कोनो शहर अइसे नइहे जउन गाँव म नइ बसे हे। तहीं कोन मारके फरीफरा गँवइहा हवस कि निमगा शहरिया। बोली -बात, रहन-सहन सबो म तो अधकचरा होगे हस। चार दिन शहर का रहिगेस उदाली मारे लगेस। फेर कहेवँ –
‘कर लेथे। अब्बड़ बढ़िया कर लेथे’ – अइसे काहत साइड हीरो के रोल म मोर बेटा दिखे लगिस। मैं खुशी ल भीतरे -भीतर चुचरत पूछेवँ – ‘गाना के वीडियो बनाना हे कि फिलिम के ?’
‘नइ, बासी बोजते हुए एक नानचुक वीडियो बनाना हे।’
बासी के बात सुन, हम बोकबाय हो गेन – ‘बासी !’
हाँ, आजकाल चारों मुड़ा बासी का शोर उड़ रहा है न, तो अपुन ने भी ठाना कि क्यों न बोहाती गंगा म थोरिक हाथ बुड़ो के चिभोर लिया जाय। फेर वो मोर कोति अपन बसियाहा मुँह ल लानत कहिथे- ये बासी का होता है, थोरिक विस्तार से बतायेंगे क्या अंकल ?
हहो काबर नहीं बेटा ! बासी हमार जान, मान अउ शान हरे। रतिहा के बाचे भात ल थोरिक पसिया अउ पानी मिलाके बोर के रखे जाथे। बोर के कम से कम तीन घंटा राखे ले वोमा भरपूर विटामिन अउ पौष्टिकता हमा जथे।
अच्छा ! बासी, मतलब रूनियाए-जुनियाए जेवन ल पानी म बोर के खाना।’
अइसन म तो हम बसियाहा डबलरोटी ल चाय म बोर के बिहनिया रोज खाते हैं। डबलरोटी ल तको खमीर के जागत ले सड़ाया जाता है। हम जो पैकेट बंद मिक्चर, बिस्किट, कुरकुरे खाते हैं वो सब भी बासी है। ‘ओह आई सी’ हम बासी खाते हुए भी बासी से अनजान थे। फिर ये बढ़ा-चढ़ाकर तिहार जैसा माहौल क्यों ? इडली, दोसा अउ जलेबी के पिसान को भी तो रात भर डूबो के राखा जाता है।
फेर वो लइका एक ठिन कटोरी म बासी माँग डरिस। वोला टेबुल म राखिस। ओकर आजू -बाजू चेंच भाजी, आमा के अथान, गोंदली अउ नून मँगा लिस। सबो के कटोरी ल अलग-अलग सुग्घर सजाके टेबुल म रख लिस। बेदरा का जानय अदरक के सुवाद। पाकिट के बसियाहा जिनिस खवइया, बोरे बासी के मरम ल का जानय। कटोरी भर बोरे -बासी म ठोमहा भर नून डार लिस। चम्मच माँगिस अउ एक चम्मच खावत विडियो बनवा लिस।
बोरे बासी खावत बनाए अपन वीडियो ल टीवी, अखबार, व्हाट्सअप, ट्वीटर, फेसबुक अउ जाने का-का मीडिया मन अइसन बगराइस कि चारो कोति लोगन म बोरे बासी खावत फोटू खिंचवाए अउ वीडियो बनाए-बनवाए के होड़ माचगे।
वो लइका रातो-रात स्टार बनगे। बिहान भर अखबार, व्हाट्सअप अउ टीवी मन ले जानेन कि वोला ‘बासी ब्वाय’ के सम्मान ले सम्मानित करे गे हे।

जय जोहार !!
धर्मेन्द्र निर्मल

लउछरहा..