इतवारी: बरा + बरी = बराबरी !

नान्हे लइका गणतंत्र दिवस के बेरा म बोचकत पैंट ल संभालत आगू बढि़स अउ कागज म लिखके लाने अपन भासन पढ़े ल लगिस। आदरणीय माई पहुना, गाँववासी अउ मोर सहपाठी भाई -बहिनी हो ! आज मैं गणतंत्र दिवस के सुग्घर बेरा म अपन नान्हे मुँह ले नानमुन बिचार रखे बर जावत हाववँ। नान्हे लइका बने फोर -फरिहाके नई गोठिया सकय तभो ओकर तोतरी बानी के गोठ-बात सबो ल बने सुहाथे-भाथे अउ नीक लागथे। मोला अपने लइका जानके मोर टूटे-फूटे भाखा म तको मोर भाव ल समझ जहू अउ मोर जम्मो…

इतवारी: दिन कइसन आगे संगी !!

बात जादा जुनियाए नइहे। दूए दिन पहिली के हरय। काम से एक ठो आफिस के चक्कर लगावत रहेंव। उह बीच एक झन मोर आगू ले गुजरिस। छरहरा देंह, ऊँचपूर, सूट-बूट ले दुमटाम। मोर नजर के लबेदा परे ले ओकर चाल के आमा ‘लद्द ले’ मोर अंतस म गिरगे। ओकर लकधक, लदफद चाल-ढाल बतावत रिहिस हे कि वो कइसन चाल के हे। थोकन बेर म मैं अपन काम निपटावत वो आफिस म बइठे रहेंव। कति ले घूमत-फिरत वो धूमकेतु कस उहेंचे आ धमकिस। आते साथ मेडम ल कहिस- ‘मेडम जी नमस्ते…

इतवारी: छेरी के छेरा छेर बरकनिन

जन मानस के उछाह अउ प्रसन्नता समाज म परब बनके सिरजथे-पनपथे। इही परब पानी कस धार एक पीढ़ी ले दूसर पीढ़ी बोहावत -सरकत परम्परा बन जथे। परम्परा अउ संस्कृति कोन्हो भी समाज, देश, काल अउ राज के आरूग चिन्हा होथे। देश, काल अउ वातावरण के सपेटा म परके परब, परम्परा, रीत-रिवाज, संस्कृति के चोला, रंग- रूप अउ सँवागा भले बदल जथे फेर आत्मा नई बदलय। आत्मा ठाहिल रहिथे। गीता म तको आत्मा ल अजर, अमर अउ अजन्मा बताए हवय। सीधवा गँवई शहर संग संघरके लाज म अपन संस्कार ल चपके-धरे-लुकाए भले बइठे…