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इतवारी: महतारी भाखा, मोसी दाई के साखा !!

गाय के दूध कतकोन पुस्टई हो जाय, महतारी के दूध नइ हो सकय। जइसे मोसी दाई कतको मया-दुलार कर लेवय मोसीच दाई रहिही महतारी नइ हो सकय।
महतारी भाखा अतेक मयारू अउ सबला होथे कि हरेक बात ल सहज अउ सरल ढंग ले बता -समझा डारथे। मनखे जनम ले के पीछू सबले पहिली जऊन भाखा ल सीखथे ओला महतारी भाखा कहिथे। महतारी भाखा बिगर कोनो मेहनत -मशक्कत के मुँह ले झर-फूटके मन म पझर-पसर, रच-बस जथे। महतारी भाखा ले ही मनखे के समाजिक अउ भाखई पहिचान होथे।
सबो जानथन, महतारी भाखा ल नान्हेपन म महतारी ले सुनत-देखत, खेलत -कूदत सीखे-समझे लेथन अउ अपन भावना ल व्यक्त करे लगथन। अइसन होथे माँ सबद। अउ माँ माने महतारी के मया, मरम अउ ममता के महानता तो सबो जानथौ।
मनखे जब बोले बर सीखथे त सबले पहिली माँ सबद उचारथे। लइका के बंद मुँह ले ‘आँ’ काहत खोले म ही ‘माँ’ सबद के उच्चारण हो जथे। मैं जानत रेहेवँ, चाहथौ त अभ्यास करके देख सकथौ कहे के पहिली आप ‘माँ’ कहि डारे होहू। नकल करना मनखे तीर अक्कल होय के पोठ, सबल अउ साबूत सबूत हरे।
का हे, अपन आँखी म नींद आथे। भारतीय संस्कृति के मनखे ल ये महान पुरखौती देन हवय कि कोनो ल काँही जिनिस बर रोकबे -टोकबे त वोहँ उही ल करके देखथे। ये बँगुनिया के पानी तात हे झन छूबे कहिबे, त वो छूके के देख लेथे तभे ओकर मन माड़थे। जरके सिसिया चाहे किकिया। येमा लइके भरके बात नइ हे, बड़े मन तको अइसेनेहेच करथे। दूगोड़िया जिनावर मनखे अतेक उजबक अउ अलवइन होथे। मनखे के बेन्दरा के वंशज होए के येकर ले दूसर बड़का, पोठ अउ ठाहिल प्रमाण दे बर मैं असमर्थ हौं।
कतकोन कड़क, कठिन, घातिया अउ परलोकिया परिस्थिति के पाहरा होवय महतारी के अँचरा के छाँव, ममता के भाव अउ दुलार के दाँव तरी सबो मुड़रिया-मुरझा जथे। लइका कतको रोवत राहय, ओला कतको बड़े दुख राहय महतारी के कोरा म जाके सबो ल भुला जथे। ओकर हरेक बात, हरेक इशारा ल लइका सहज रूप म समझ जथे। ये बात अलग हे कि लइका बड़े होके जनम देवइया महतारी के मया, ममता अउ मान ल भुलाके अप्पत, घेक्खर अउ बेड़जत्ता हो जथे।
भाखा के संबंध म तको इही हाल हे। कतकोन पढ़े -लिखे अउ महतारी भाखा के गुन गवइया मनखे ल देखबे, उन अपन भाखा म नइ गोठियाके हिन्दी अंगरेजी झाड़े लगथे। अइसे करत उन अपन शान समझथे।
कतकोन परदेसिया हमर छत्तीसगढ़ म आके बसे हावय। उन्कर पीढ़ी बढ़गे पुरखा तरके। उन अबले अपन बोली -भाखा ल नइ भुलाए-तियागे हे। जब दू परदेसिया मिलथे त अपने भाखा म गोठियाथे। लाज-संकोच नइ करय। अइसे नइ हे के उन्कर नाक-कान बेचा-कटागे हे।
नाक-कान बेचाए-कटाए के सोचान-गुनान के ये अमटका अथान ल हमन चाँटथन। अइसन बूता ल उही मन करथे जऊन जादा हुसियार होथे। नइतो उन करथे जऊन बियक्कल हे। मैं अब ले ये तय नइ करे पाए हाववँ कि हुसियार हौं कि बियक्कल हौं, तेकर सेति अपन आप ल अव्वल गँवार मानथौं, गिनथौं, जानथौं अउ एहू तानथौं कि ये दर्जा म कोनो मोर ले नइ अघुवा सकय।
परदेसिया मन ल उन्कर भाखा म गोठियावत सुनके गिजगिज करत, दाँत ल निपोरत हम उन्कर नकल उतारे लगथन। देखऊटी उपरसँस्सु गोठियाथन महतारी भाखा ल नइ तियागना चाही। अपन अंतस ले कभू काबर गोहराके नइ पूछन कि हम अपन महतारी भाखा के प्रति कतेक लगाव रखथन ?
हरियाके घऊदे, फइले अउ विकास के लालच म परभाखा संग मया,मितानी अउ मुँहलग्गी जायज तो हे फेर येकर माने ये नइहे कि ओकर मोहफाँस म फँसके गुलाम हो जइन। गुलामी के मुहतुर भाखा ले होथे। फेर शिक्षा के अँगरी धरत, रेंगत खाँध म हाथ मड़ा देथे। एक समे अइसे आथे कि उही परभाखा संस्कृति अउ समाज संग मुँह करिया कर लेथे।
आज दक्षिण भारत ल तकनीक के क्षेत्र म बड़का, पोठ अउ सजोर ठिहा माने जाथे। सुने रहेवँ उहाँ अपन दक्षिणी भाखा के छोड़ ओमन कोनो भाखा ल महात्तम नइ देवय। अइसे तको सुने हवँ कि उड़िसा म अधिकारी करमचारी मन ल सोज्झे ताकीद करे जाथे कि कहूँ उड़िसा म रहिना, गुजर -बसर करना हे त उड़िया भाखा सीखे, समझे अउ जाने बर परही। अब हम कहाँ हन सोचके देखव एक पइत।
अभीन अभी ताते -तात सुनब आवत हे कि स्कूल म महतारी भाखा म शिक्षा देहे जाए के तियारी चलत हावय। देर आए दुरूस्त आए। बिहिनिया के भुलाए लइका सँझा लहुट जावय त ओला भुलाए नइ काहय। बड़ अच्छा लगिस। ‘मोगंबो खुस हुआ’ के पीछलग्गे मोर मन बगइच्चा- बगइच्चा होगे।
ब्रिटेन के युनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग अउ तुर्की के शोधकर्ता मन अपन शोध म पाये हवयं कि महतारी भाखा म गोठियइया लइका मन नंगत चंट अउ हुसियार होथे।
गाँधी बबा तको शिक्षा बर महतारी भाखा के सरोठा तीरय। उन सोज्झे काहय कि महतारी भाखा म शिक्षा ले भारत म नकलची अउ नमूना नई होवय, भल्कुन लाखों- करोड़ो वैज्ञानिक अउ दार्शनिक पइदा होही।
अइसे नइ हे कि बबा ल अंग्रेजी नइ आवत रिहिस हे। गाँधी बबा तो अंग्रेजी जनइया-बोलइया डेढ़ हुसियार मन म एकलऊता अकेला सऊँहत ‘एक्का’ रिहिस हे। आधा म ‘जिन्ना’ रिहिस हे। ये बात ल एक पइत अंग्रेज विद्वान खुदे बताए रिहिस हे। अब मनसा-भरम म अइसे झन समझिहौ कि मोला बताए रिहिस हे। महूँ नइ सुने हौं, हाँ पढ़े हौं फेर।
हिन्दी साहित्य के बड़का अउ पोठ लेखक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हँ तको महतारी भाखा के महात्तम बतावत कहे रिहिस हे कि ‘निज भाषा उन्न्ति अहै, सब उन्नति को मूल।’
सियान पाहरो म लइका मन के शिक्षा -दीक्षा गुरूकुल म होवय। शिक्षा के मन्दिर अब बयपारी मन के महान कृपा ले चोला बदल के दुकान के रूप धर ले हवय। खैर बयपारी मन तो अपन बयपार के धरम निभाबे करही, छत्तिसगढ़िया मन अपन करम कहाँ तक निभाथे आगू पता चलही।
जोंखी छाँड़के साँप नवा चोला धर लेथे अउ फुन्नाके फन्नाए लगथे। देखथन हम अपन जुन्नेटहा जोंखी ल छाँड़के कतका फुन्ना -फन्ना पाथन।
का आदमी अस
अपन भाखा के बोल न जाने,
अपन भाखा के मोल न जाने।
जनम देवईया जग के पहिली,
माँ सबद के तोल न जाने।।
पर भाखा ल हितु मानथस।।
झुंड म चले जिनावर हिरना,
कीट पतंगा पंछी परेवना।
संग भाई के चले न दू दिन,
भूले, न पूछे पिंयारी बहना।।
दाई ददा ल दूर भगाथस।।
धरम करले धाम बनाले
सत करम कर काम बनाले।
धन दौलत कुछु साथ न जावै
जिनगी म कुछु नाम कमा ले।।
मानुस कस जी मानुस अस।।
अपन हक छीने बर जान
हितुवा अउ बइरी पहिचान।
खाले किरिया जाय परान
फेर न छूटय सुवाभिमान।।
पर के बुध म जाथस धंँस।।
आ कहीथे बोली हँ जा कहीथे
समझथे दुख जे पीरा सहीथे।
मया के बोल म वो ताकत हे
जे धार परे पखरा बहीथे।।
काकर बल म तैं अँटियाथस।।
गिजगिज करे दाँत निपोरे
पर भाखा के नकल उतारे।
बोले म छत्तीसगढ़ी लजाए
हिंदी म गलत लिखे उचारे।।
अउ अंगरेजी म एम.ए. हस।।

जय जोहार!!
धर्मेन्द्र निर्मल

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