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इतवारी: छेरी के छेरा छेर बरकनिन

जन मानस के उछाह अउ प्रसन्नता समाज म परब बनके सिरजथे-पनपथे। इही परब पानी कस धार एक पीढ़ी ले दूसर पीढ़ी बोहावत -सरकत परम्परा बन जथे। परम्परा अउ संस्कृति कोन्हो भी समाज, देश, काल अउ राज के आरूग चिन्हा होथे। देश, काल अउ वातावरण के सपेटा म परके परब, परम्परा, रीत-रिवाज, संस्कृति के चोला, रंग- रूप अउ सँवागा भले बदल जथे फेर आत्मा नई बदलय। आत्मा ठाहिल रहिथे। गीता म तको आत्मा ल अजर, अमर अउ अजन्मा बताए हवय। सीधवा गँवई शहर संग संघरके लाज म अपन संस्कार ल चपके-धरे-लुकाए भले बइठे हे, फेर भोला गँवई भलई ल नई भुलाए हे। ये बात अलग हे कि चमचमावत चकाचैंध म चमक चिटिक चीथियागे हवय।

स्कंदपुराण के अनुसार मनखे ल अपन कमई के दसवा हिस्सा ल दान म लगाना चाही। दान कभू अबिरथा नई जावय। दान के मान, गान अउ शान अबड़े होथे, अलगे होथे। एक ठो पौराणिक कथा के अनुसार राजा मोरध्वज अउ रानी अपन बेटा ताम्रध्वज ल आरा म काटके ओकर अंग ल भूखाए शेर के आगू म परोस दिस। आरा म अंग काटे के सेति वो जगा/गाँव के नाम आरंग होगे। छत्तीसगढ़ के भूइँया ये हिसाब ले धानी, दानी अउ मानी होए के संगे-संग स्वाभिमानी तको हवय।

दान के संस्कार म सनाए छत्तिसगढि़या अपन उठत कौंर ल थामके भूखाए मनखे ल अपन थारी ल परोस देथे, फेर डेरौठी म आए याचक ल जुच्छा हाथ नई लहुटावय। बइरी बर ऊँच पीढ़ा के हाना छत्तीसगढ़ के दानशीलता के सबले बड़े वैध प्रमाणपत्र हरे। धान के कटोरा धरे, मन म दान, दया अउ सरल-सहज सुभाव भरे छत्तीसगढ़ ल देख कतको कटोरा अउ चरूधारी सकराएत मन आके पइधत हे। उही बिधरमी, बेशरम अउ बेंवारस मन छत्तीसगढ़ के तिजौरी ऊपर बइठ, छत्तिसगढि़ये मन ल आँखी देखावत हे।

दान के पीछू दशर््ंान तको सपटे-लुकाए हवय। दान मया, मोह अउ ममता के मइल ल धोके मन ल शुद्ध करथे। संतोषी सदा सुखी। जेकर मन म संतोष, सहनशीलता, सादगी, सरलता, सहजता, सहानुभूति, सौहार्द्र अउ उदारता होथे वो दान के महात्तम ल भलीभांति समझथे।

संस्कृति अउ परम्परा के अलग अलग रूप सहीन दान के कई ठो रूप हवय – अन्नदान, गोदान, भूदान, स्वर्णदान, कन्यादान वस्त्रदान। समे के संगत म बइठत -उठत दान रक्तदान, नेत्रदान, अंगदान अउ अब देहदान तक लमिया गे हवय। दान के महिमा अउ मान, नाँगर के मितान अउ जाँगर के खदान किसान ले जादा कोन समझ सकत हे।

किसानी बूता एक साधना हरे जऊन कोन्हो यज्ञ ले कम नई होवय। किसान के जिनगी के यात्रा परब ले शुरू होके परब में पूरा होथे। परब के श्रीगणेश अक्ती ले शुरू होथे जेमा प्रकृति ल जल दान करे के पीछु किसान खुर्रा बोनी करके अन्न ल भगवान भरोसा छोड़ देथे। ये ह अंधविश्वास नोहय भलकुन विश्वास के गहरई अउ आस्था के तिलिंग ऊँचई हरे। हरेली म किसानी ले जुड़े सजीव-निर्जीव सब्बो सहचर, सहयोगी अउ संगवारी के पूजन करे जाथे। छेरछेरा वो यज्ञ के पूर्णाहूति हरे जेमा किसान प्रसन्न मन ले माई कोठी के अन्नपूर्णा ल दान करके धरती के कुबेर बन जथे। अन्न दान ल सबले बड़का दान माने गे हवय। छेरछेरा अन्नदान के महोत्सव हरे।

छेरछेरा पूस अंजोरी के पुन्नी के माने जाथे। येला शाकम्भरी दिवस तको कहिथे। गँवई जिनगी म छेरछेरा परब के अलगे ठऊर अउ ठसन हवय। खेत ले फसल लुआ-टोराके कोठार आथे। कोठार ले मींजा-कूटाके कोठी म समा जथे। कोठी ले सिघियाए अन्नपूर्णा जब मुचमुचावत झाँकथे त किसान के मन ले उछाह उम्हियाए लगथे। तन-मन झूमे-नाचे लगथे। तब परोपकारी किसान दान के बाना बोहे परब मनाथे।

सबो परब के एक न एक कहिनी होथे। आने आने जन अउ जगा के हिसाब ले कहिनी भले अलग-अलग हो सकथे फेर सबो के मूल म उछाह, एकता, अउ सहकार के भावना छुपे रहिथे। छेरछेरा तको ओइसनेहे छीटीबूँदी, रंगबिरंगी अउ छितरियाए कहिनी मन के छाता तनियाए-ओढ़े ठाढ़े हवय।

कहिथे एक पइत बरसा के रिसाए ले धरती म बारह बछर के घोर अकाल परिस। त्राहि-त्राहि मच गे। संत बिपत म तको अपन सुमत ले सुपथ के दुवार खोल देथे। कोनो महात्मा कहिस कि शताक्षी देवी के पूजा करे ले अकाल टर सकत हे। शताक्षी माने सौ आँखी वाली। सबो मनखे मिलके शताक्षी देवी के पूजन-अर्चन करीन। देवी माँ के प्रसन्न होगे। ओकर सबो आँखी ले अतेक आँसू बोहाइस कि धरती के पियास बुझा गे। अंग-अंग ले अन्न -धन के संगे संग किसम-किसम के साग-पान के बरसा होए लगिस। इही दिन ले अन्न के बरसे ले खेत -खार ‘सोनबरसा’ अउ शाक के बरसे ले धरती ‘शाकम्भरी’ कहाए लगीस। सुकाल के आए ले दुकाल के बारा हाल होगे। सबो प्राणी प्रार्थना करे लगीन। देवी माँ प्रसन्न होके ‘श्रेय‘ ‘श्रेय‘ माने कल्याण हो, कल्याण काहत असीस दीस। इही श्रेय श्रेय शब्द बेरा के धक्का-मुक्की खावत घीसा-पीटा के छेरछेरा होगे। ये घटना ह पूस पुन्नी के घटे रिहिसे। कतकोन झन मन मानथे, हो सकत हे शाक-पान, कंदमूल संग अन्न के बरसा ह ‘छर -छर -छर -छर’ सुनाइस उहेंचे ले छेराछेरा नाम अवतरिस होही।

शिव के उपासक शैव सम्प्रदाय म येहू कहिनी हे कि राजा हिमाँचल के बेटी पार्वती ह ंशिव ल मने -मन पति मान डारे रिहिसे। शिव ल पाए बर वोह घोर तपस्या करत रिहिसे। पार्वती के परीक्षा लेहे बर शंकर नट रूप धरके भिक्षा माँगे के ओखी करके ओकर तीरन आइस। ओकरे सुरता म लोगन घुँघरू-घाँघरा माने पैंजन-करधनी पहिन के आनी बानी के रूप धरके माँगे बर टोली बनाके अउ अकेल्ला-दुकेल्ला तको निकलथे।

अइसे तको कहे जाथे कि रूरू नाम के रक्सा के अत्याचार ले बाँचे बर मनखे मन देवी के प्रार्थना करीन। देवी माँ अपन सखी मन संग मिलके रूरू ल डंडे -डंडा पीट-पीटके मार डारीन। छेरछेरा परब के सतरंगी इन्द्रधनुष म एक रंग एकरो हे। इहीच ल कोनो अइसनोहो प्रतीकात्मक रूप म देखथे कि छै-अरि माने छै झिन बइरी काम, क्रोध, लोभ, मोह, तृष्णा अउ अहंकार ले मुक्ति पाए बर याचक दुवार-दुवार घूमत हे। माई कोठी ल हिरदय अउ दात्री ल सऊँहत -साक्षात देवी माँ माने गे हवय।

एतिहासिक कहिनी येहू हवय कि जुन्ना बेरा म राजा के प्रतिनिधि मन गाँव म ढोल‘-मँजीरा अउ बाजा-गाजा संग मुनादी कराके कर/लगान (टैक्स) सकेलय। ये वार्षिक लगान हरेक बछर पूस पुन्नी के सम्पन्न होवय। अभीन के आधुनिक जुग म लेनदेन के साधन रूपिया-पैसा हे। पहिली लेनदेन के एकलऊता साधन वस्तु-विनिमय रिहिसे जेमा वस्तु के बदला वस्तु देहे जावत रिहिसे। वो समे कर म अनाज देहे जावय। कर वसूली के ये बूता ल रतनपुरिहा कलचुरी शासनकाल म राज्योत्सव के रूप मनावय। मराठा शासनकाल म ये प्रक्रिया नँदागे अउ राज्योत्सव एक तिहार बनके समाज म पसर के संघर-समागे।

छत्तीसगढ़ के जुन्ना नाम कोसल रिहिसे। बताथे कि कोसलपति राजा कल्याण साय राज-पाठ के गहिर गुर सीखे बर दिल्ली के महाराजा इहाँ आठ बछर ले रिहिस। राजा के कौशल होके सकुशल कोसल लहुटे म प्रजा के खुशी के ठिकाना नई रिहिस। उन कोसलपति के सुवागत म राजधानी रतनपुर पहुँच गे अउ जय-जयकार करे लगीन। प्रजा के अपार भीड़ अउ उन्कर उमड़त प्रेम – आनन्द ल देख मगन रानी महल के अटारी ले दूनो हाथ ले सोन-चाँदी के सिक्का ल प्रजा म लुटाए लगीस। वो बछर धान कटोरा छत्तीसगढ़ म धान के भरपूर पैदावार होए रिहिसे। राजा अउ प्रजा दूनो के घर-दुवार धन-धान्य अउ खजाना म सिगबिग ले भरगे। राजा उही पइत अपन जम्मो छत्तीसो गढ़पति ल आदेश जारी करीन कि मोर घर-वापसी के सुरता म हर बछर पूस पुन्नी ल तिहार के रूप म मनाए जाय।

ये बेरा म लइका मन टोली बनाके नाचत -गावत छेरछेरा माँगे बर निकलथे। माईलोगन मन सूवा गीत गाथे। जवान मन कुहकी पारत डंडा नाचत छेरछेराथे। छेरछेरा म छेरछेराए बर उमर, जात-पात अउ ऊँच-नीच नई देखे जाय। लइका, सियान, बूढ़वा, जवान कोनो छेरछेरा माँग सकथे। छेरछेरा माँगे के बूता ल छेरछेरई कहे जाथे। कुहकी एक विशेष प्रकार के कूक हरे जऊन उछाह अउ उमंग के प्रतीक होथे।

पूस पुन्नी के दान ह नैमित्तिक दान कहाथे। छेरछेरा के दिन कान छेदाए बर शुभ माने गे हवय। तेकर सेति ये दिन गाँव-गँवई म लोहार अउ सोनार मन के महत्व बाढ़ जथे। साहूकार मन ये दिन अपन जुन्ना खाता-बही के हिसाब-किताब करके नवा खाता तको चालू करथे।

कतको जगमग अँजोर करय फेर दीया तरी कुलुप अँधियार कलेचुप सपट के रही जथे तइसे कोनो शुभ घड़ी म तको एकात ठन ऐब रही जथे। छेरछेरा म तको एक ठो बैसुरहा समाजिक बुरई ह बसर कर ले हवय। ये दिन कोनो मनखे अपन रिश्तेदार घर सगा नई जावय। चली देथे त ओला लोटा म पानी नई देवय। जबकि छत्तीसगढ़ के परम्परा म सगा ल भगवान मान सबले पहिली सेवा सत्कार स्वरूप एक लोटा पानी दे जाथे। एकर पीछलग ये अंधविश्वास हवय कि ये दिन सगा ल लोटा म पानी दे ले बछर भर सगा के रेम लगे रहिथे, जेकर ले घर के कुल देवी, धन देवी या लक्ष्मी रिसा जथे अउ घर ल छोड़के चल देथे।

झगरा के नाम ओखी तइसे परब के नाम कहिनी-पोथी। जोरे म कतको कहिनी जुरिया जही अउ सकेले म कतकोन पोथी सकेला जही। कहिनी कुछू राहय, कतकोन राहय फेर सबो के मूल म उमंग अउ उछाह उछरत-बोकरत ले सिघियाए भरे हे। सहकारिता अउ सहयोग के भावना भरे ये महान अन्नदाता परब के कोख ले कतकोन सहकारी संस्था, रामायण मंडली, लीला मंडली, भजन मंडली सहकारी बैंक के रूप म ‘रामकोठी’ अउ शिक्षा मंदिर के रूप म ‘सहकारी स्कूल’ मन जनमे हवय। ये किसम ले छेरछेरा ले सकेलाए दान के अन्न ले गरीब, असहाय अउ बिपत परे मनखे मन के सहयोग हो जथे। छेरछेरा के सबले बड़े, जबर अउ पोठ पाठ सहकारिता के भावना ल जागृत करना, ओला सींचके ओकर बिरवा ल पेड़ बनाना हे जेकर ले समाज विकास के रद्दा म सरीदिन सरलग बाढ़त रहय। जावत खानी तुँहर चिटिक असीस खातिर थोरिक महूँ छेरछेरा लेथवँ
छेरी के छेरा छेर बरकनिन छेर-छेरा
माई कोठी के धान ल हेर हेरा
अरन बरन कोदो दरन
तभे देबे तभे टरन
धनी रे पुनी ठबक नाचे डुवा रे…

अंडा के घर बनाएन
पथरा के गुँड़ी।
तीर-तीर मोटियारी नाचै
माँझा म बूढ़़ी।
कारी कुकरी करकराए
कुसियारी सेवय।
बुढि़या ल मानुस मिलय
मोटियारी रोवय।
तारा रे तारा पीपर के तारा
जल्दी जल्दी बिदा करव जाबोन दूसर पारा

जय जोहार !!
धर्मेन्द्र निर्मल

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