मनखे बालपन म टन्नक, चंट अउ हुसियार होथे। जस जस बाढ़थे, ओकर दिमाक घर -परिवार, सुख-दुख, दुनियादारी के खरदरहा पथरा म घिसा-घिसाके खियाए लगथे। सियान के होवत ले उही दिमाक पैदल हो जथे। बिहनिया-बिहनिया तो उन्कर हाल अउ बिन गड़हन के हो जथे। दूसर के ल नइ कहे सकवं मोर हाल तो एकदमेच पोचपोचहा, पोंगपोंगवा अउ पंगुरहा बरोबर हो जथे। मुंह तो बनेच कोढ़िहा हो जथे। बक्का ह छक्का परे पुक कस बाउंड्री के बाहिर निकल जाए रहिथे, फूटबे नइ करय अजरहा ह।
होरी के दू दिन पहिली बड़े बिहनिया मोर आंखी उघरते साथ देखथवं-मोर बाजू म सुते मोर गुड़िया ऐश्वर्या जेला मैं मया म ‘मम्मी’ कहिथवं, मोला टकटकी बांधे बोकोर-बोकोर देखत राहय। मैं थकहा अलटप्पू छाप मुसकिया भर देवं। वो ‘सर्र के’ पिचकारी मार दिस – पापा, तोला कोन से तिहार बने लगथे ? मैं ओकर मया रंग म चोरोबोरो भींजे अपन दिमाक ल पैदल रेंगाए लगेवं। सोचते रहिगेवं कोन तिहार ल कहना चाही। वो फेर कहिस -‘मैं बताववं मोला कोन तिहार बने लागथे।’ अंधरा खोजय दू आंखी। हर्रा लगय न फिटकिरी रंग लगे चोखा। ‘हूं’ भर कहे म माँगे मनौती कस मोर बनौती बनत हे। अउ का चाही। अपन कोढ़िहई ल पोटारे कहेवं- ‘बता।’
लइका मन बिगर कोनो लाग लपेट के भरे पिचकारी कस रंग ‘सर्र के’ मन के बात ल मुंह कोति ले पिचक डारथे।
कहे लगिस- ‘मोला न सबले अच्छा होरी तिहार लगथे। देवारी, दसहरा अउ आने तिहार मन म नवा नवा कपड़ा सिलवाए बर परथे, जेकर ले खर्चा भर बाढ़थे। तिहार के नाम से क्रीम पावडर लगाके तिहार होय बर परथे, समे भर खराब होथे। होरी म जुन्ना-सुन्ना, चिरहा -फटहा जउन हे उही ल पहिर ले अउ बस… दउड़-दउड़ के रंग खेल। जेन ल मन करत हे रंगा। चारो कोति मजेच-मजा।’
सोचे लगेवं -ये अतकी बड़ लइका ल रंग-रोगन, खर्चा-वर्चा अउ बेरा बचत के हिसाब कहां ले आगे। मैं गुना-भाग करते रहेवं कि वो फेर एक ठो सवाल के पिचका मार दिस-‘हमन होरी माने बर गांव कब जाबोन ?’
‘अब देखबो बेटा, अइसे तो मोर मन नइ होवत हे एसो जाए के’- मैं गुनमुनावत कहेवं। अतके सुनत देरी रिहिसे। मोर दुमना, जुड़हा अउ जुच्छा पानी के परे ले वोकर फगुनई नंगारा के टिन्न ह गद्द होगे। वो बदबदाए लगिस- ‘का पापा, जब देख तब गांव जाए के नाम म तैं अइसेनेच करथस। ये तिहार -सिहार कुंडा तरी जाय, गांव जाए म सबले बड़े मजा ये आथे कि साक्षी, गुंजन, पीहू, पल्लवी दीदी, लिषा, गरिमा, बिट्टू भैया, सब्बो झिन जुरियाथन, खाथन अउ खेलथन।’
मैं येमन में साक्षी ल चाची अउ गरिमा ल बड़ी मां कहिथौं।
मोला समझत देरी नइ लागिस- मन के आनन्द ही सब ले बड़का तिहार ये।
ओकर मन ल रखत हमन बिहान भर गांव आगेन। होरी के दिन मैं चंउक कोति जाए बर निकलत रहेवं। मोर एक झिन भतीजीन ‘लिसा’ दुवारी म फुग्गा म रंग भरे धरे खड़े राहय। ‘लिसा’ मोर कका के नतनीन हरे। मोला जावत देखके पूछिस-‘बड़े पापा ! मैं ये फुग्गा ल फोर लेववं ?’ मैं पहिलीच कहे रेहेवं मैं दिमाक से पैदल हौं। ओकर बात ल नइ समझ पाएवं। कहेवं- ‘बेटा, बढ़िया रंग भरे हस त फोरबे काबर ?’ फेर दिमाक के बत्ती अचानक ‘बंग ले’बरिस। पूछ परेवं- ‘अच्छा ! रंग खेलना हे कहिथस का ?’ वो लजावत सकुचावत कहिस- ‘हां।’
ओकर उमर अभीन छै बछर हे। मैं जब भी गांव जाववं, वो कभू मोर आगू म नइ आवत रिहिसे। कतको बलाववं तभो दूरिहे राहय। जब घेरके कुछू पूछवं त खड-खड़े हालत-डोलत जुवाब देवय। गोठियावत बखत हालना-डोलना माने मनखे के अपन अंतस के हलई-डोलई ल सारना-संभालना होथे, अइसे मोला लगथे। पता नहीं वो मोर प्यारी बिटिया जेन मोर आगू म अपन होके कभू नइ बोलत रिहिसे, तेन ह मोर ले अइसे सवाल पूछे म अपन अंतस ल कतका हलाइस, डोलाइस अउ हुदेनिस- चेचकारिस होही। अपन इरादा के पहाड़ ल कतका उंच करिस होही।
वो आगू कहिस- ‘तोर उपर फोर लेववं।’
मोर मन ले बड़े होए के हिमालय पहाड़ म जमे बरफ ओकर कोंवर-कोंवर गोठ ले छिन भर म पलपल ले पिघल के कलकल-कलकल बोहाए लगिस। ओकर उछाह, आनंद अउ पोठ इरादा के आगू मैं अपन आप म एकदमे बठवा लगे लगेवं। अतके कहेवं- ‘तोर मन बेटा, तोला जइसे मन लगत हे ओइसने कर।’ अउ अपन दूनो हाथ ल खुल्ला छोड़-छितराके आंखी ल मंूदके खड़ा होगेवं। वो आइस, रंग भरे फुग्गा ल धरेच के धरे मोर छाती ल ‘धपाक ले’ मारिस अउ तुरते लहुट गे।
ओकर फुग्गा के मार ह अभीन ले मोर छाती म धड़कन बनके धड़कत हे।
ओकर बचकानी चेहरा ह अभीन ले मोर आंखी म झूलत हे।
ओकर मया भरे ठोठकत बोली ह अभीन ले मोर सुरता म डोलत हे।
बेटी हो ! खूब खूब मया, खूब खूब असीस।
हरेक हिरदय म इंद्रधनुसी, अइसनेहे मया रस घोरव।
बिगर कोनो हिचकिचाहट के, मन के हर बात बोलव।
हर बंधन के टोरके बेड़ी, पांव पांव म धरती नाप लौ।
चंदा बन जग ल सीतलावव, सुरूज बन अगास ल छू लौ।
जय जोहार!!
धर्मेन्द्र निर्मल