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इतवारी: जुन्‍ना दिन बहुरत हे

दूए दिन पहिली मोर हंडा कंहू ले आइस। अरे बबा ! केछुवा धरे -धरे हंडा खोजइया पंडा मन रतिहा मोरे घर झन धमक देवय। छत्तीसगढ़ म हंडा अपन बेटा ल तको कहे जाथे। हाँ, त मोर हंडा कहूं ले आइस अउ धोए गोड़ -हाथ ल पोंछत कहिस- कतेक अजब बात हे। गाँव म घर पहंुचते दादी कहय- बेटा कहूं ले आथव त हाथ- गोड़ धोके भीतर आए करव। हमन कतको काहन कि हमन कहूचो नइ गे रहे हन। एदे बस बाहिर पैठा म बइठे रहेन। वो कहय – घर ले बाहिर गए रेहे न। गली म निकले रेहे न !! गली म कतकोन रेंगइया, कोन कइसे कोन कइसे, कोन जानत हे ? कोनो थूकत रेंगत हे कोनो अउ कंहू ले आए हे काला खूंदे हे न काला ? तै का जानबे। एक लोटा पानी म पाँव ल धोइ लेबे त का हो जही। रोज- रोज के ये तर्क ह मन ल कुतरे लगय। बवंडर ले सुभीता सरेंडर। ओकर ले बने कहूं ले आ, सबले सुभीता लोटा भर पानी ल गोड़ म रिको ले ! बस, चारो कोति ओम शान्ति !!! आज एक दूसर ल काहत हे अउ उहीच बूता ल करत तको हे। माने सियान मन कतेक दूरदर्शी होथे।
कहेंव – हां बेटा। उन घाम म बइठ के चुंदी नइ पकोए रहय। अनभो अउ धियाने ह सियान मन के खजाना होथे।
जउन बीत गे वो बात गै। मैं का जानौ, भूतपूर्व ह अभूतपूर्व बनके वर्तमान म ठढ़िया जाही कहिके।
हंडा, अभीन अभी आइस अउ कहिथे – देखे, अब अइसे होगे कि लोगन मुुँह म गमछा बाँधे राहय त पहिचान नइ आवत हे कहिके ओला छोरवावय। अब उही ल कहिथे – पहिली मास्क लगा तेकर पीछू गोठियाबे।
हंडा उदुपहा मोर सड़क म मोड़ लान दीस। मोला अपन किताब पढ़ई म ब्रेक लगाए बर परगे। सोंचे लगेंव, सही बात ए, फेर ‘हूँ’ भर कहिके रहिगेंव। वो कहिथे – फेर मोला समझ ए नइ आवय कि जउन मन पहिली सुवाफा/गमछा बांधे बिना रेंगत नइ रिहिने उही मन अब मुँह ल खुल्ला करके रेंगत हे। जबकि मास्क बहुते छोटे होथे।
सोचे लगेंव- मनखे सहींच म जउन कर कहिबे उही ल नइ करय अउ जेला झन कर कहिबे उहीच ल करथे। पेंट के सटर उठाके उहेंचे बोतल खाली करथे जिंहा लिखाए रहिथे- इंहा पिशाब करना मना हे। अब कोन समझावै इन ल, या का समझै इन ल।
माने आज के युवा पीढ़ी उही करथे जउन मनाही रहिथे। या तो ये ढीठ हे या डेढ़ हुसियार। फेर प्रकृति के आगू म न कोनो ढीठई चलय न हुसियारी।
मोला अपन गाड़ी रोके बर परगे। बिन मथे दही ले लेवना नइ निकलय न सागर रतन देवय।
मंथन होना चाही। मंथन ले जहरे भर नइ निकलय, अमरीत तको निकलथे। अब तो मोर मन माँगत हे कि पंडा मन आवय। अपन हंडा ले उन ल एकात सिक्का बजुर देहौं।
जय जोहार !!
धर्मेन्द्र निर्मल

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