इतवारी: उरमाल म वो गजामूंग !!

जेकर अंतस म जीए के ललक होथे, वोह कोनो डाहर ले होवय उछाह के अंँचरा ल थाम डारथे। गजामूंग छत्तीसगढ़ म मितानी परम्परा के एक ठो रस्ता हरे। लहू अउ परिवार के रिस्ता ले हटके एक ठिन अउ रिस्ता होथे-मया के। मया के ये रिस्ता ल मयारूक मन मितानी के नाम देथे। मितानी परंपरा म भोजली, जँवारा, दौनापान, तुलसी, महापरसाद असन गजामूंग के तको चलागन हे। महापरसाद अउ गजामूंग भगवान जगन्नाथ के परसाद हरे। महापरसाद भात के सीथा (चुरे चाऊँर) अउ गजामूंग माने पीकीयाए (अंकुरित) मूंग। बस्तर के गोंचा परब म गुड़ संग मिलाके पीकीयाए मूंग भगवान जगन्नाथ ल अर्पित करे जाथे। पुस्टई बर मूंग अउ गुड़ दूनो माँगे आए हे। महापरसाद ल छत्तीसगढ़ जतन-सहेज के राखे जाथे अउ मनखे के अंतिमयात्रा के बेरा महापरसाद खवाए जाथे, ताकि ओकर यात्रा साहज अउ सहज हो जाय।

हमर परोसी राज्य उड़ीसा म आषाढ़ शुक्लपक्ष द्वितीया ले जगन्नाथ के रथयात्रा शुरू होथे, जेन नौ दिन के होथे। रथयात्रा पुरी के जगन्नाथ मंदिर ले शुरू होथे। पुरी भारत के पूर्वी छोर उड़ीसा राज्य म समुन्दर ले अंदाजन डेढ़ किलोमीटर के दूरिहा म नीलगिरि पर्वत म हावय। कलिंग वास्तुशैली के सबले सुग्घर उदाहरण ये मंदिर ल नरेष चोडगंग ह 12 वीं सदी म बनवाए रिहिसे। जउन जगा म मूर्ति बने हे वो जगा ल गुण्डिचाघर, ब्रह्मलोक अउ जनकपुर तको कहिथे। उड़ीसा के पहिली राजा इन्द्रद्युम्न ह ये रथयात्रा ल शुरू करे रिहिसे, ओकर सुवारी के नाम ‘गुण्डिचा’ रिहिसे। रथयात्रा पुरी के प्रधान परब हरे जऊन जगप्रसिद्ध हावय, येला ‘गुण्डिचा’ तको कहिथे।

उड़ीसा के पुरी क्षेत्र भगवान श्री जगन्नाथ के लीला-भूमि हरे। येला पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र अउ श्रीक्षेत्र के नाम ले तको जाने जाथे। उड़ीसा के राजधानी भुवनेश्वर ले साठ किमी दूरिहा जगन्नाथ पुरी हवय, जिहां के जगन्नाथ मंदिर म जगन्नाथ (श्रीकृष्ण), सुभद्रा अउ बलभद्र (बलराम) के मूर्ति हावय। भगवान श्रीकृष्ण स्कंदपुराण म कहे हे कि पुष्य नक्षत्र वाले असाड़ महीना के दूज के जऊन मोला, बलराम अउ सुभद्रा ल रथ म बइठारके यात्रा करवाही ओकर मनोकामना पूरा होही अउ ओला धर्म, अर्थ, काम अउ मोक्ष मिलही। जगन्नाथ जी के रथ गरुड़ध्वज या कपिलध्वज कहाथे। जेन 16 ठिन चक्का के अउ 13.5 मीटर ऊंच होथे। बलराम के रथ तालध्वज कहाथे जेन 14 ठिन चक्का के अउ 13.2 मीटर ऊंच होथे। जउन डोर ले रथ ल तीरे जाथे, वोला वासुकी कहिथे।

उड़ीसा के जगन्नाथ पुरीच कस हमर छत्तीगढ़ के बस्तर म गुण्डिचा परब मनाए जाथे। इही गुुण्डिचा धीरे -धीरे ‘गोंचा’ कहाए लगिस। येला रजुतिया अउ रथ दूतिया तको कहिथन। बस्तर म रथयात्रा के आरम्भ महाराजा पुरूषोत्तम देव जी के द्वारा जगन्नाथपुरी यात्रा के बाद करे गइस। ये परब म तुपकी चलाके रथयात्रा ल स्वागत-सलामी (गार्ड ऑफ़ ऑनर) देहे के रिवाज हवय। बस्तर म बंदूक ल तुपक कहिथे। तुपकी ल बाँस के पोंगरी के बनाए जाथे। तुपकी बर गोली के रूप म एक ठो जंगली लता के छर्रा असन गोल -गोल फर जेला पेंग या पेंगु कहिथे ओकर उपयोग करे जाथे।

जगन्नाथपुरी असन इहंचो गोंचा परब, जेठ अंजोरी पाख के पुन्नी ले देव स्नान पुन्नी माने चंदन यात्रा ले प्रारंभ होथे। चंदन यात्रा के पीछु आषाढ़ अंधियारी पाख के पहिलावत तिथि ले जगन्नाथ 15 दिन तक अस्वस्थ हो जथे, ये विधान ‘अनसर’ कहाथे। ये 15 दिन म जगन्नाथ के दर्शन नइ हो पावय। 15 दिन के पीछु असाढ़ अंजोरी के पहिली दिन ‘नेत्रोत्सव’ मनाये जाथे । अस्वस्थता के पीछु नेत्रोत्सव के दिन जगन्नाथ स्वस्थ होके श्रद्धालु मन ल दर्शन देथे।
आवागमन के अल्लार साधन होए ले आज के मनखे छिन म सात समुन्दर पार करके कतकोन दुरिहा ले आ-चल देथे। पहिली जब साधन-सुविधा के अकाल रिहिसे। लोगन रथयात्रा के दर्षन खातिर रेंगत आवय-जावय। अइसन म कतकोन लहुट के आवय, कतकोन रथयात्रा मेला म ठेला जावय। तेकर सेति जब कोनो यात्रा ले आवय त उन्कर बाजा गाजा के संग जगन्नतिहा गीत गावत स्वागत करे जाय। लम्बा बिछोह के पीछु जब लोगन एक दूसर ले मिलय त मिलन के आनंद अउ खुसी के रंग अलगे रहय। उही सुरता ल सरीदिन अंतस म राखे खातिर समाज म भगवान जगन्नाथ के परसाद ल आपस म बाँटके गजामूंग बदय।

जय जोहार !!
धर्मेन्द्र निर्मल

लउछरहा..