छत्तीसगढ़ के लोक आस्था, परब, तीज-तिहार अउ संस्कृति के बगराव उल्का ले भुलका तक हावय, माने इन्कर जर ह भूँईया के भीतर अउ डारापाना ह असमान के ऊपर तक बगरे हावय। जिनगी क्षणभंगुर हावय। मनखे काया ल माटी समझथे। फेर इहाँ के मनखे के जीजिविषा अउ जीवटता के आगू ईसर तको नतमस्तक हो जथे। इहाँ माटी के बड़ महिमा हे। माटी म माटी मिलके मनखे सोन उपजाथे उहेंचे ईसर राजा ल तको सिरजा डारथे। उही सेति इहाँ के भाखा भर म दया -मया के सुग्घर मिलाप नइहे भलकुन हरेक तीज-तिहार अउ परब म श्रम अउ सुघरई के सुग्घर मेल -मिलाप देखे बर मिल जथे। इहाँ के लोकजीवन सीधा-सादा, सरल अउ शिष्ट हावय जेमा सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् सहज रूप म समाहित रहिथे। येमा कोनो किसम के छल-छिद्र, चोचला अउ आडम्बर नई होवय जेकर कबीरा विरोध कर सकय। उही सेति इहाँ हर परब अउ संस्कृति म एकता, भाईचारा, समाजिक समरसता, सामूहिकता अउ समन्वय-सहयोग के कोट-कोट ले समावेश होय रहिथे। इही लोकजीवन के ताकत हरे जऊन मनखे ल सुख-दुख म संग जीए के प्रेरणा देथे, दुख ल मिलके झेले के अउ सुख म संग-संग उछाह मनाए के। इही सहानुभूति लोकजीवन के समाजशास्त्र हरे। ओइसनेहे समाजिक समरसता अउ समन्वय के लोकपरब हे गऊरी-गऊरा।
गऊरी-गऊरा छत्तीसगढ़ के गरब हरे। ‘गऊरा’ ह आदिवासी समाज गोंड़ अउ कंवर मन के धार्मिक अनुष्ठान हरे जेला कोनो मनौती पूरा होए म बइठारे जाथे। फेर येला सबो मिलजुल के मनाथे। येमा जम्मो शिल्पकार जाति के सहयोग रहिथे। शिल्पकार जाति माने कुम्हार, लोहार, गँड़वा, बढ़ई, कंड़रा, कोष्टा एमन शिल्पकार जात हरे। ये तिहार म कुम्हार मूर्ति बनाके, लोहार घर के शबरी चुलमाटी कोड़े के, बढ़ई घर के पाट पीढ़ा, बरात परघौनी अउ करसा परघौनी के बेरा गँड़वा के बाजा, माटी लाने बर कंडरा के नवा टुकनी, चुलमाटी झोंके अउ ढाँके बर कोष्टा घर के नवा कपड़ा के खोंची -खोंची सहयोग ले सम्पन्न होथे ईसर राजा गऊरी गऊरा के बिहाव परब।
अइसनेहे खोंची खोंची अंजोर के दान माने दीपदान ले संपन्न होथे महान तिहार देवारी के सुरहुत्ती, जऊन ह अमावस के घपटे अंधियार ले लड़के जग भर म अंजोर बगराके मुचमुचाए लगथे।
तुम पूजौ रे धन कुबेर ल
हम ईसर राजा ल मनाबो
कतको घपटै बिपत अंधेरी
जुरमिल जिनगी म अंजोरी लाबो
गऊरा – गऊरी पूरम पूरा बिहाव तिहार हरे जेमा देवादिदेव महादेव अउ आदिशक्ति दुर्गा के बिहाव सम्पन्न होथे। बूढ़ादेव, दूल्हादेव, ठाकुरदेव अलग -अलग नाम अउ रूप भर हे आय असल म देवादिदेव महादेव।
जउन ठऊर/चैक म गऊरा – गऊरी बइठारे जाथे ओला गऊरागुड़ी अउ वो चैरा ल गऊरा चैरा कहिथे। गौरा चैरा म एक ठो गड्ढा कोड़के ओमा एक ठो ताँबा के कुटका, कुकरी अंडा अउ सात या नौ जात के फूल डारके मूसर म कूटथे, जेला फूल कुचरना कहिथे। फूल कुचरे के बेरा मूसर म साते ठन हाथ लगाए जाथे। पीछू ओकर ऊपर बोईर काँटा रखके ऊपर म पथरा लदक के रख दिए जाथे। माइलोगन मन रोज ओमेर टूकनी म फूल धरके आथे अउ चाँऊर छींचके पतरी चढ़ाथे। ये पतरी सात घँव तक होथे। गऊरा चैरा के चारो मुड़ा सुवा नाचके ओला जगाथे। चैरा ल जगावत कोनो ल देव आ जथे जेला डंड़इया चढ़ना कहिथे। डंड़ईया ल कोष्टा घर के नवा कपड़ा म ढाँके जाथे।
एक पतरी रैनी भैनी
रायरतन हो दुर्गा देवी
तोरे शीतल छाँव, चैकी चंदन पीड़ुली
गउरी के होथे मान
जइसे गउरी ओ मान तुम्हारे
तइसे कोरवा के डार, पर्रा छिंदल गय डार
जा देखि आबे, महामाई के लोग लइका
डारा ल खावय ओ फूले पहिरथय
खेलय सगरी के पार
धोवा चाँऊर चघाय
गउरी गउरा रखे के बाद अइसनेहे सात पइत उतारा चलथे।
आठवा दिन माने कातिक अंधियारी चैदस के बिहिनिया ले चुलमाटी लाने बर जाथे। जेला माटी मारे कहेे जाथे। माटी कोड़े म सात झिन कुँवारी कैना मन ह बइगा के संग देथे। माटी ल उही डंड़ईया के नवा कपड़ा के अँचरा म झोंके जाथे। चुलमाटी के माटी ल बाँस के दू ठिन नवा टुकनी म भरके नवा कपड़ा म ढाँक के लानथे। हौंला नइतो गगरी म तरिया के नवा पानी लाने जाथे।
एक ठिन टुकनी के माटी ल गौंटिया घर अउ दूसरइया टुकनी ल बैगा/कुम्हार घर रखे जाथे। गौंटिया घर के माटी ले गऊरी अउ बैगा/कुम्हार घर के माटी ले गऊरा ल सिरजाथेे, ओकर ऊपर सोनापान-सनपना लगाथे। गऊरा ल नन्दी ऊपर अउ गऊरी ल केछुवा नईतो बघवा म असवार करे जाथे।
कोनो कोनो जगा गऊरी के माटी ल गौंटिया घर नइ रखके एके घर म रख देथे, फेर बनइया अलग अलग बनाथे। गऊरी के माटी, पानी कोनो जिनिस के उपयोग गऊरा बर नइ करे जाय।
स्तूप के आकार म मण्डप सजाथे। स्तूप के चारो खंभा म दीया बरथे। चारो खंभा ले बीचो-बीच स्तूप के आकार बनाके ओकरो ऊपर दीया मड़ाथे। धान के बाली, काँशी के फूल, गोंदा फूल अउ दौनापान ले सजाए जाथे। मण्डप के खाल्हे म माई करसा रखे जाथे। छत्तीसगढ़ के बिहाव परम्परा म दूल्हा ल जनेऊ अउ दुल्हिन ल सोला सिंगार ले सजाए जाथे। गउरी ल मंगलसूत्र अउ चूरी पाट पहिराके माँग म सेंदूर भरे जाथे।
येति कुम्हार गऊरा – गऊरी के सिरजन करथे ओति माईलोगन मन घरो-घर जाके सुआ नाचथे।
तरी हरि नाना नाना सुआना….
जोगी के भेस म रावर आए
भिक्षा माँगन बर रावन आए
भिक्षा ल फेंकि के रथ म बइठारे
सरन सरन सीता गोहराए
ओति ले आए राजा जटायु
रथ ल राखे वो बिलमाए
अगिन बान रावन मारे
………….
एटवन बेटवन तोर घर भरै
जइसे के देहू तइसे के पाहू
जीयव तुमन लाख बरिसे
तब तक येति गऊरा – गऊरी सजके तियार हो जथे। फेर होथे बरात परघौनी। ये शोभा यात्रा म गाँव भर के मनखे संघरथे। इही संघराव अउ जुराव समाजिक सामूहिकता, समरसता, समन्वय अउ एकता के पहिचान हरे। ये शोभा यात्रा कुम्हार घर ले माई करसा के संग निकलथे। बरात जब कुम्हार घर पहुँचथे त कुम्हारिन दुवार म पानी ओरछके बरात के सुवागत करथे। मूर्ति उठाए के पहिली कुम्हार ल नरियर भेंट करके आसन डोलाए के रसम निभाथे। माई करसा के सात पइत मऊर सौंपे जाथे। मऊर सँऊपे के रसम लोक जीवन म बिहाव के सबले बड़का अउ माई रसम हरे। ईसर राजा गौरा के बरात निकलथे तेन गौरी घर जाथे जिहाँ दूनो के आरूग कच्चा दूध म पाँव पखारथे। गोंड़ जनजाति म चढ़ बिहाव के परम्परा होथे जेमा वधु पक्ष वर पक्ष के घर जाके बिहाव के रसम पूरा करथे। येला मैदानी इलाका म ठीका बिहाव कहिथे। त अइसनोहो कहिथे कि गऊरी ल लेके गऊरा के ठऊर म बरात के शोभा यात्रा निकलथे।
कुम्हार घर ले गऊरा – गऊरी ल लान के गऊरागुड़ी म बढ़ई के बनाए लकड़ी के पीढ़वा म रखे जाथे। जेला पाट पीढ़ा कहिथे। शोभा यात्रा के पहिली मूर्ति के प्राण प्रतिष्ठा करे जाथे। गऊरा गऊरी के मूर्ति ल बिराजे के पीछू पींवरा धागा म सात भाँवर बाँधके बिहाव के सात फेरा के रसम निभाए जाथे। टीकावन टीके जाथे। जेमा मुख्य रूप ककरो छानी परवा के तुमा, कोंहड़ा या रखिया ल डंड़ईया ह टोर के लानथे। बरात के बेरा भड़ौनी घलो चलथे।
धन धन हो ईसर अक्कल तुम्हारे
घोड़वा ल छोड़के बइला म चले आय
धन धन हो गऊरी अक्कल तुम्हारे
पालकी ल छोड़के केछुवा म चले आय
जब गउरी गउरा ल गउरा चैरा म लानथे ओतका बेरा बूड़ती मुँह करके रखे जाथे। बिहिनिया के सुकवा उये के बाद उन्कर पीढ़ा ल उत्ती ले बदले जाथे।
मूर्ति स्थापना के बाद करसा परघौनी करथे। गाँव म येला भड़भड़ बोकरा तको कहिथे। नवा चाँऊर के पिसान ले दूध म फरा बनाथे जेला दूधफरा कहिथे। इही ईसर राजा गऊरा-गऊरी के परसाद हरे। ये बिहाव के रसम ह रातभर चलथे।
करसा सिंगारव भइया रिगबिग-सिगबिग
बहिनी सिंगारव भइया गोमची बरन के
करसा सिंगारत भइया एक दिन लगथे…
बहिनी सिंगारत भइया महीना भर लगथे
नान्हे लइका मन ल बुरी नजर ले बचाए खातिर कर्रा काड़ी म आँकथे। बड़े मन अपन हाथ के मुरवा (नाड़ी) म काँशी के बने डोरी म पीटवाथे, जेला साँट लेना कहिथे। साँट खाना पुरूषार्थ के प्रतीक होथे छत्तीसगढ़ म।
रात भर ओकर आगू रतजगा के पीछू आथे बिदई के बेला। बिदई के बेरा म छत्तीसगढ़ के जम्मो बाजा रूंजी दमऊ, दफड़ा, मोहरी, टीमकी सबो मिलके रंगझाँझर मताथे। गऊरा चैरा के आखरी पइत मँऊर सँऊपे जाथे।
एक पतरी चढ़ाएन गउरी
भेलवा भेलवासी
आमच आमा कूदेन गउरी माँगेन चैरासी
रौनिया के भौनिया लतपत पतोइया
आगे आगे राम चलय
पाछे म भौजइया
पूजा अर्चना करके माई करसा ल डंड़इया चढ़े रहिथे तेला बोहाथे ओकर पीछू गऊरी गऊरा फेर जुलुस गाँव भर घूमत, गाँव के देवी -देवता म हूम-जग देवत मनावत घठौंदा पहुँचथे जिहाँ घाट म पानी छींच के जगा ल पवित्र करके गऊरी गऊरा ल उतारके बिदई के दुख म भरे मन से आखरी पइत पूजा अर्चना करथे। फेर धीरे -धीरे म पानी म उतारके विसर्जित करे जाथे।
सुतव गउरा मोर सुतव गउरी
सुतव सहर के लोग
सुतव सुआ मोर सुतव बहिनी
सुतव सहर के लोग
जय जोहार !!
धर्मेन्द्र निर्मल