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इतवारी: रँगहा कोलिहा

बेरा-कुबेरा कइसनो होवय परिणाम ल आनच होथे। जउन आथे उही परिणाम ये। चाहे वो कोनो रूप म होवय। जेन नइ आइस तेकर का? बीती ताहि बिसार दे। काली 10 वीं के परीक्षा परिणाम आइस। परिणाम ये, आनच रिहिसे। आ गे। अब समस्या ये हे के पहिली सकारात्मक गोठियाय जाय के नकारात्मक। अफसाना अउ हकीकत के बीच कोनो ठोस सरहद नइ होवय उन अक्सर गलबँहिया डारे फिरथे। जइसे एक सिक्का के दू पहलू। प्रत्यक्ष कोन्हो पहलू राहय फेर अप्रत्यक्ष रूप से दूसरइया पहलू तको संगे म रहिथे। जब दूनो पहलू संगे रहिथे, त स्वाभाविक हे उन्कर असर तको बजूर परही। अब असर प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष कोन्हो एक रूप म हो सकथे। कभू दूनो रूप म तको हो सकथे। खैर बात कइसनो करे जाय, जइसे परिणाम ह आयेच बर होथे, तइसे घटना ह घटेच बर होथे। मनखे ल सकारात्मक गोठ ही करना चाही कहिथे। लोगन के अइसे मानना हे कि शुभ-शुभ बोले ले अशुभ के मुँह करिया जथे। काम भले अशुभ -अशोभनीय रहय गोठ शुभ-शोभायमान होना चाही। काबर कि ए बहस के रद्दा म आगू बढ़े त ट्राफिक बोर्ड होथे न -‘आगे रस्ता बंद हे’ ओइसनेहे कहे जाथे – वो तो जइसे जेकर सोच।

ये रस्ता बंद हे, दूसर कोति चलथन। पहिली पइत सब्बो के सब्बो पास। पहिली पइत कोन्हो फैल नइ होइस। रोगी मनखे के मन ल मड़ाए बर खाली केप्सूल म शक्कर भर के देहे जाथे जेला चिकित्सा विज्ञान के भाषा म ‘प्लेशेबू’ कहे जाथे। दाई खुश – मोर लइका पास। ददा खुश – दू बछर ले फैल होगे रिहिसे टूरा हँ। कोरोना हुसियार कर दिस। किंदर- किंदर के खवइया लइका आज कुसियार के मजा चुहुका दिस। ये उन्कर सोच जिंकर लइका सहीं म दूदी साल ले पास नइ होए रिहिसे। जउन लइका सहींच म दिनरात एक करके चश्मा के नंबर बढ़वइस, जिनगी के गुना भाग ल छोड़ सिरिफ किताब के गुना भाग करिस। दुनियादारी के गनित छोड़ सिरिफ सवाल के जोड़-घटाव ल जानिस -करिस। पढ़ई अउ पढ़ई करय उन्कर का? बरदी बर कोदो पैरा नहीं, खल्ली-कुट्टी होगे। खीर खागे गदहा खार खाए घोड़ा। टीका लगाए भर ले पंडितई के प्रमाण नइ हो जय। घोड़ा मन के बीच गदहा ल रंगा के दउड़ा देबे त गदहा दउंड़ नइ जीत जाय। फेर येहू बात सोला आना सच हे कि जीयत मनखे तको मुर्दा मानुष हे जब तक ओकर तीरन जीवन प्रमाण पत्र नइहे। मुसुवा कतको मोटा जाय हाथी नइ हो सकय अउ हाथी कतको दुबरा जाय मुसुवा नइ हो सकय। फेर जे दिन मुसुवा प्रमाण पत्र धरके खड़ा हो जाही कि देखव मैं हाथी हरवं। मोर तीरन हाथी होए के स्थायी प्रमाण पत्र हे, ते दिन हाथी के का होही ? संभवतः ‘हाथी निकल गे, पूछी अटक गे’ के जगा ‘हाथी अटक गे मुसुवा गटक गे’ होही।

छोटा हाथी बड़े होके ट्रक कभू नई बन सकय, फेर होनी-अनहोनी दूनो एक दिन कहानी-किस्सा जरूर बन जथे। कहानी ले रंगे कोलिहा के सुरता आगे। शेर के रंग म रंगे कोलिहा कहत रहय – मैं जंगल के राजा। उही बेरा सर्कस वाले मन शेर के संग रंगे कोलिहा ल तको पकड़ लीन। खेल के बेरा रिंग मास्टर के सोंटा परिस त शेर दहाड़े लगिस। कोलिहा के पछीत रंगके लाल होगे, फेर न हुँवा-हुँवा निकलिस न हुआ-हुआ, निकलिस त चारो कोति ले थुवा-थुवा।

जय जोहार !!

धर्मेन्द्र निर्मल

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