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इतवारी: अरे, ओ भाय !!

खोजे ले मुड़ के घन जंगल म जुँवा मिल जथे। निकाले म बाल के खाल निकल सकथे। भूइयाँ ले खोदके हजारों बछर जुन्ना सिंधु सभ्यता ल निकाल लेन। अतके भर नहीं, खोधर -खोधरके ओकर अध्ययन तको करत हन। जब अध्ययन करे म मुड़ खपा सकथन त अपन बीते जिनगी ल झाँक के काबर नइ देख सकन। अपन बने, सुग्घर अउ सुखद जुन्ना दिन के सुरता के झिरिया ल काबर नइ खोद सकन। आसरा ल चिमोट के पोटारे, पार म बइठे भर ले पियास नइ बूझावय। मेहनत करे बरे परथे।
कतको झिन ल ‘हमर जबाना’ सुनके तुनकासी आथे। मैं अपन जबाना के बात नइ करवं। मोर जहुँरिया अउ सहपाठी मन जब दूसरी तीसरी पढ़त रहय, त गुरूजी खाली इमला, बाराखड़ी अउ पहाड़ा लिखवावय। गृहकार्य म याद करके मँगावय। जउन उन्कर मन बर पहाड़ सरी उंच रहय। फेर ओला जब करय त बिहान दिन स्कूले म आके पूरा करय। गुरूजी इमला ल खुदे ल जाँचे बर कहि देवय। खुद के जाँचे के बाद एक दूसर के ल जाँचय । सबले पाछू गुरूजी जाँचैं। अतका चलनी म छनाए के बाद भी गुरूजी अपन ज्ञान के सूपा म फून डारय। पोठ अउ बदरा दाना ल अलगिया लेवय। गुरूजी अतेक मयारू रहय, काँहीच नइ बोलय। जउन करय -बोलय ओकर बेसरम के बेंतराम करय। निमगा निमार के अलगियाए भूसा भरे दिमाक वाले मन ल लाइन से खड़ा करय अउ उन्कर हथेरी संग बेंतराम के समधीन भेंट करावय। भेंट -मिलन गहिर मया के पहिचान होथे। समागम ले मन के मइल मिटा जथे अउ एक अलगे रंग उबकथे। वाह रे गुरूभक्ति !! हथेरी म लोर उबक जाय, तुरत चाँटके फेर प्रस्तुत -लौ गुरूजी, गुरूदक्षिणा। फेर किर – कार नह होवत रिहिस हे। अब तो किर हं कार अउ कार हं किर होवत हे।
‘कि’ ल धीरे अउ लउहे, अउ ‘की’ ल जोर से लमाके पढ़य- पढ़वायय। ‘कि’ अउ ‘की’ दूनो मात्रा के बीच भेद बतावय। कहय – ‘कि’ ह शादीराम घरजोड़े हरे, त ‘की’ ह मया जोरूक हरे। ‘कि’ वाक्य संजोजक हरे – मैं जावत रहेवं कि वो मिलगे। ‘की’ ह संबंध बोधक वाक्य ये, एक दूसर के संबंध बताथे – कृण्ण की राधा, रामू की बहन।
धृतराष्ट्र के राजा बने ले गुरूजी के हाथ ले बेंतराम छीना गे। ये गुरूजी ! न सोटा न खोटा। तैं खाली पास के प्रमाणपत्र बाँट। राजभवन आ, चहा-पानी पी, पंचयती कर। नीत -नियाव के देखइया रानी आँखी म पट्टी बाँध लीस। जावव..रे करमछड़हा हो, तुँहर मुँह नइ देखव मै। अब दूर्योधन -दुशासन के बल म कौरव मन गुरूजी ल आँखी देखावत हे।
रेत ल सकेल -सीघियाके चित्र बनाए जा सकत हे, महल खडा न करे जा सकय। नेंह मजबूत होना चाही। एशियन के पेंट पोते ले दीवार के चमक भले बाढ़ जथे, घर के मजबूती नइ बाढ़य। चूना के पोते ले कोइला संगमरमर नइ हो जाय। पखरा के बाढ़त जंगल म प्लास्टिक के पेड़ लगाना उंच नाक के प्रतीक होगे हे। जर म पानी परे ले पेड़ हरियाथे, अउ फुलथे-फरथे । ‘भय बिनु प्रीति न होहि गुसाई’ कस जब तक गुरूजी नइ सोंटियावय, तब तक चेला के सुते ज्ञान ह जाग के नइ अटियावय।
हुसियार ड्राइवर अपन गाड़ी ल पेल के चालू करे के उदीम बहुत कम करथे। उन जानथे कि एक पइत धकियाए ताहेन ये गाड़ी धक्कच प्लेट हो जही। येला हमेशा धकिया के चालू करे बर परही। गुरूजी ल निहत्था – अउ कमजोर देख लइका मन सरी देश दुनिया के भार ल अपन मुड़ म उठा डारे हे। ज्ञान प्राप्ति बर गुरूभक्ति होना ओतके जरूरी हे, जतका मोबाइल बर रिचार्ज।
अब सब खदर-बदर होगे हे। सिलबट्टा के जमाना गै। मिक्सी के पीसाए चटनी ल सबे खावत हे। कुसियार ल चाबके खाए म दांतो पोठ होवय, आंतो पोठ होवय। लकड़ी म रेंदा मारे ले वोेह चमकथे भर पोठ नही रहय। ये तोतरा अंग्रेज मन के बूट, टाई, कोट, ह हमार दिमाक म रेंदा मारके रख दीस। अब हम अर्पणा-अपर्णा, पर्वत-संपर्क, निर्भय-निशर्त, सर्कस-सतर्क, संघर्ष -घर्षण म भेद नइ कर सकत हन। शिक्षा तो माई भासा म होना चाही। मनखे ल अपन विकास खातिर आने भासा म ज्ञान तको जरूरी हे फेर एकर मतलब एहू नइ हे कि जउन डारा म बइठे हन उही ल काट डारन।
ये सब खदर बदर म मोरो माथा खदबदागे –
पढ़ई म हम एमे ले ओमे
शिक्षा बेड ले मेड
हिन्दी हमका आती नहीं
अंग्रजी हमेरी जाती नहीं
छत्तीसगढ़ी म का गोठियाय ?
सुनो तो भाय, सुनो तो भाय
अरे, ओ भाय !!

जय जोहार !!
धर्मेन्द्र निर्मल

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