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इतवारी: तोर शहर म का धरे हे?

बड़ा हुआ सो क्या हुआ, उँ..उँ..बड़ा हुआ उँ….उहीच -उहीच डाँड़ ल घेरी -बेरी घोरियावत सुन बबा कहिथे – अरे बूजा ! बाढ़ भर गे हस रे ! हुड़मा कस डुंगडुंग ले, अक्कल के न बुध के। उहू पेड़ का काम के? जउन फरय न जुड़ झाँव दे सकय। पढ़े भर ले कुछु उदबत्ती नइ जरय, कढ़े बर तको परथे। पढ़, कढ़ अउ बढ़।
कोनो शहर अइसे नई हे जिंहाँ गाँव नइ बसे होही। गाँव ल पाँव तरी रउँद के शहर अपन पनही चमकावत टेस मारत हे। पैडगरी रद्दा ल लील के गाल म क्रीम -लिपिस्टिक पोते पक्की सड़क गाँव म घुसर गे। प्लास्टिक के खोखा ह फैशन के तमाशा देखाते-देखावत मोहा डारिस अउ गँवई के संस्कार ल झटक-छीन के गँवार बना दीस। नान्हे मोबाइल आहे। कोरोना कस भीतरे -भीतर गत मारके रख दीस। पहिली मनखे दू-कदम संग रेंगइया के पीढ़ी-पुरखा ल खोज डारय। मया जोर, नता बाँध डारय। उही अब एके सीट म बइठे संघरा चार कोस सफर करइया संग तको चीन-पहिचान नई बना सकय। संवेदना लिखो-फेंको पेन कस होगे हे। चेहरा के मुस्कान चाइना माल होगे हे। देखे म श्याम सुन्दर ….चलगे त चलगे – सबो देखौटी।
नवा-नवा फेसन गाँव ल कहिथे – चल शहर जाबोन रे संगी, गँवई ल छोड़के शहर जाबोन। गाँव ईमानदार हे, कथे – तोर शहर म का धरे हे, कोलबिल काँव -काँव? बड़ भोला हे गाँव, अपन नई गइस अउ शहर ल अपन कोरा म बसा लीस। कतेक हुसियार हे शहर! देख – नदिया के पानी ल बोतल म भर डारिस। बर-पीपर के सरसरावत जुड़ छाँव, हवा ल मुरसेट के एसी-कुलर के पेट म बोज दीस।
हुसियारी सबो के दुवारी म काम नइ आवय। मंगल दूनो जगा होथे, फेर मंदिर के दुवार म माथ नवाथे, बरात जाथे त मड़वा मारथे। रेंगत ल थामना अउ थमे ल रेंगाना प्रकृति विरूद्व हरे। बोहावत पानी रूकथे त बस्सा जथे। माटी के ये नश्वर चोला हवा के आवत -जावत भर ले मानुष बने डोलथे। हवा फुस्स, मुक्तिधाम घुस। पानी मइलाए मलेरिया, हवा मइलाए हैजा। अउ का -का लेबे ? देहे बर तको तो सीख। टेबल उपर छुरी-काँटा म वो बेंदरी मैगी ल नाचत-मटकावत देख बासी के पुस्टई लजागे। लाज के मारे कुरिया म मुड़ ढाँके खुसरे हे। कपाट के ओधा ले झांकथे त ये कर्रहीन मैगी डरूवाथे वोला। बिहई उपर बनाए बाई भारी होथे। बाँटा -हिस्सा के फेर म बने-बुनाए नवा घर बुढ़ा जथे। उहाँ न जिनगी के सात फेरा हो सकय, न कोनो मंगल बेला के डेरा। वो भूत बंगला के बगल म बेंवारस जागे ठेमना अउ गेंड़राहा पीपर गाँव के पीपर के आगू म अँटियाथे – का खाथस रे तैं ? गोइहा कस मोटागे हस।
गँवइहा पीपर डरपोकना हे बिचारा। हुँकय न भूँकय। शहर के भाव बाढ़ गे। पींवरी पागा बाँधे हाँसत कुलकत गाँव के मुड़ ल जबरन मुड़ दीस। हरियर -हरियर खेत-खार के मेड़ पाट पखरा के जंगल खड़ा कर डारिस। उही पखरा के जंगल म रहइया मनखे काली काहत राहय – अरे यार ! काली फलाना गाँव जाना हे। काबर ? का हे, नवा मकान बनाए हौं। कुछु फूल-पान लगाना हे। माटी चाही। सुनके शहर तरी दबे गाँव सिसकत कथे- हमर इहाँ मकान नहीं, घर होथे।
विकास के महागाथा लिखइया महामानव पखरा के जंगल म खडे़ हे अउ माटी बर तरसत हे। सवाल ये हे कि विकास आखिर हे कहाँ अऊ अइसन विकास ले कइसन भला?

जय जोहार !

धर्मेन्द्र निर्मल

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