इतवारी: देखत म छोटन लगे !

कभू कभू नानमुन उदीम बड़का बूता के फल ल सहज, सरल अउ सरस कर जाथे। अइसनेहे एक ठो छोटकुन घटना हे जउन मोर संग घटे हे अउ अब ले वो मोर मन के एक ठिन कोन्टा के खूँटी म झूलना झूलत टँगाए हवय। कोनो कोनो बेरा ओकर संग मोर नजर मिल जथे। फेर जब नजर मिलथे ओला मुस्कुरावत पाथवँ। ओकर मुस्कुरावत चेहरा ल देखके मैं अपन मुस्कुराहट के टोटा ल नइ मुरसेट सकवँ अउ कइसनोहो बेरा होवय मुस्कुराए बिना नइ रेहे सकवँ।
दुनिया म तीन ठिन हठ होथे- बाल हठ, तिरिया हठ अउ राज हठ। सबो हठ के अपन अपन फल होथे। फेर बालहठ के खेल, उदीम अउ परिणाम बड़ सुग्घर, सुहावन अउ सुमधुर होथे।
एक दिन मोर गुड़िया काँही बात बर बिफड़गे रहय। ओला कहन – कपड़ा पहिन ले बेटा !
हमर बात पूरा नइ होए रहय, वो चटाक ले कहय- नइ !
गाल म दूनो कोति फुग्गा चिपकाए वो हरेक बात ल हवा म उड़वा देवय। हमर आगू हरेक उदीम आवय फेर ओकर आगू म थोथना ल ओरमाके के बइठ जावय। हम ओकर गुस्सा के आगू अपन जम्मो लहूलुहान हथियार ल धो-पोंछके रख देन – अब आगू कुछु कहना -बोलना बेकार हे। बेरा, बात अउ बेवहार जम्मो जिनिस ल जस के तस उही हाल म छोड़ना भल जानेन अउ उही करम करे लगेन।
ओकर फेंके बनियई आगू म परे रिहिस। अचानक मोर मन म का आइस, ओला उठा लेंव।
‘अरे यार ! ये बनियई उल्टा हे के सीधा हे ?’ अपने प्रष्न ल अपने बर चैलेंज मानत ओला घुमा-फिराके देखेवँ अउ ओला सीधा करत कहेवँ- ‘हाँ ! उल्टा हे। अइसे सीधा होही।’
सीधा करेके पीछू अपने-अपन पूछे लगेवँ- बनियई सीधा तो होगे, फेर पहिरे के बेरा बाय हो जथे, लगथे सीधा पहिरत हौं फेर पहिरा उल्टा जथे। एला न, बड़ दिमाक लगाके पहिरे बर परथे। जेकर तीरन अच्छा दिमाक होथे, वोमन एके पइत म एला सीधा पहिर डारथे। जेकर दिमाक कम होथे ओकर संग ये बनियई उल्टा-सीधा के खेल खेले लगथे।
मोर गोठ ल वो कान लगाके सुनत रहय। ओकर नजर बनियई उपर रिहिस हे। चेहरा म उत्सुकता के पंतग लहराए लगिस। वो अपन धीरज के डोर ल थाम्हे मोर कोति ल झुकेच के झुके नजर देखे लगिस कि कब मैं अपन पतंग छोड़वँ अउ कब वो झट ले मोर पतंग ल काट जीत के जसन मनावय।
बैसुरहा हवा के बहाव ल सुर म बोहावत देख मैं अपन पतंग ल थोरिक ढील देवँ, कहेवँ – ‘मोर गुड़िया रानी के बहुत अक्कल हे कहिथे, फेर हावय धन नहीं अउ हावय त कतेक अकन हे। ये बनियई ल पहिर के देखाही, तब पता चलही।’
अतके काहत देरी रिहिस हे, वो फट्ट संभल गे। बनियई ल तुरते मोर हाथ ले अपन हाथ म ले लिस। मिनट नइ लागिस वो बनियई ल पहिरके खड़ा होगे – सीधा।
ओकर चेहरा म जीत के खुषी ह हिरनी कस उछाल मारत एति-ओति इतरावत रिहिस हे। एक जीत के खुषी हमरो मन के चेहरा म उछलत -कूदत रिहिस हे।
वो अपन खुषी के तोहफा ल चेहरा म संभाले बगल म बइठे अपन भैया कोति मुड़िस। भैया तको बिन मुस्कुराए नइ रहे सकिस अउ हाँसते-हाँसत कहिस – ‘ये हमर पापा ये समझे ! कोन ये ?’
‘पापा।’
अतेक बेरा के सबो गोठ-बात अउ खेल करम ल मैं अनजान बस करत रहेवँ। ‘ये हमर पापा ये, समझे ! – सिरतोन कहत हौं, मोर अक्कल इही मेर ले काम करे बर शुरू करिस हे अउ ये कहानी बनिस हे। अब आप समझ गेव न, मैं कतेक अक्कल वाले हौं ?

जय जोहार !!
धर्मेन्द्र निर्मल

लउछरहा..