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इतवारी: बइहा बना दिए रे !

हप्ता के सात दिन म ले कोनो दिन हरे। जनवरी, फरवरी, मार्च अउ अप्रैल के कोनो महीना हरे, जऊन 2022 के थैली ले निकले रिहिसे। दिन के सुरता ह दिमाक ले इस्तीफा दे दे हवय। तेकर सेति ये नइ कहे सकवँ कि कोन दिन के बात हरे। फेर एक दिन के बात हरे।
मनखे के माथा म लिखाए अबूझ रेखा ल बूझे के बूता लाल-बुझक्कड़ मन करथे। अखबार के माथा म लिखाए आड़ा -तिरझा रेखा ल बूझे-बाँचे के बूता म हम मस्त अउ माहिर हवन। त अखबार के माथा म एक ठो कहानी पढ़े रहेवँ। कहानी के नाम रिहिस हे- थोड़ा सा पागलपन….।
कहानी म एक झिन बही रिहिस हे, जऊन रेलवाही कोति ले लेखिका के पारा म आइस। पहिली पारा वाले मन आनी -बानी के घटना-दुर्घटना, शंका-कुशंका अउ गोठ -बात के भीथिया खड़ो करके बही बर छेंका पार दीन। पीछु धीरे कुन बही के सीधा, साहज अउ सुघर सुभाव के बुलडोजर के आगू म सबो के मन के उपद्रव दाँत ल निपोर दिस।
लोगन के मन के उपद्रव दाँत ल निपोरे रिहिसे, उही बीच एक दिन बही के उपद्रव दाँत कटकटावत खड़ा होगे। जम्मो पारा, संगे मुँह फारा – बही काबर बइहाए हे ? पता चलिस – जेन लीम के पेड़ तरी बही अपन ठिहा बनाए रिहिस हे। वो ठऊर ल कोनो मनखे ले डारे हावय अउ उहाँ अपन बंगला बनाए बर वो लीम पेड़ ल उखाने बर बुलडोजर धरके आ धमके हे।
बही बुलडोजर ल आगू आवने नइ देवय। ढेला -पखरा मारय अउ ओकर आगू म रोमिहाके खड़ो हो जाय। कभू पेड़ ल पोटार के खड़ा हो जावय। आखिर म जगा वाले पेड़ ल नइ काटिस अउ ओकर बाजू म घर बनाइस।
भीड़ के कोनो चेहरा नइ होवय, फेर मुँह हजार होथे। पता नहीं कते मुँह हरे ते, फेर फुसफुसाइस – काष ! अइसनेहे थोरिक-थोरिक पागलपन सबो मनखे म होतिस। वो दिन हम ल पता चलिस कि हम पागल नइ अन। संगी -संगवारी अउ सुवारी थोरके -थोरके बात म हम ल फोकटे -फोकट पागल कहत रहिथे। समझदार होए के ये प्रमाणपत्र ल अब नाक ऊँच करके वोमन ल देखाहूँ।
पहिली सियान मन जंगल जावय। चार, तेंदू, मउहा खावय। पेड़ लगावय – आमा, अमली, लीम, बर अउ पीपर। जीयय लाख बरीसो, देवय अनलेख असीसो। छाँव तो पाबे करय। फूल, फर अउ पाना इहाँ तक कि ओकर छाला अउ जर असन ल तको दवई गोटी बनाके अपन जिनगी ल पोठ करय। सरीदिन पोठ, ठाहिल अउ ठसन के जिनगी जीइस त पुरखे मन जीइस। अबके मनखे अतेक पोंगपोंगहा कि थोरके हवा चले घोलण्ड जथे, रेंगते -रेंगत उलण्ड जथे अउ बड़ा मनोवैज्ञानिक बनथे- मनखे जिनगी के कोनो ठिकाना नइ हे रे भाई। सोला आना सही अउ पोठ गोठ। तैं अपन ठिहा बनाएच कहाँ, जेमा तोर ठिकाना रही जही।
वो पइत चरगोड़िया जंगल के राजा होवय। अभो चरगोड़िया राजा हे। जंगलराज तभो रिहिसे, जंगलराज अभो हे। सेर कहे – अब विकास के जुग म जंगल दिवस मनाना चाही। कोलिहा, बेंदरा, भलुवा, हाथी, हिरना खुस। जंगल दिवस म राजा के रैली बीच मरना कड़कनाथ मुर्गा के होगे। बोकरा के दाई कब तक खैर मनावय। बाचगे बनकुकरी बिचारी मन। उहू मन केंवो-केंवो करत कोनो दिन चुमुक ले कलेचुप अइँठ-बइठ जही। बड़े -बड़े पेड़ मन धुनि धर लिन। बेसरम अउ कनेर ठौं-ठौं मेछरावत हे। बबा रे ! का जमाना आवत हे।
लोक के खजाना म तंत्र के फसाना हे। लोकतंत्र के पहिली सीढ़िया पंचयती राज के बेला घलो आगे हे। गाँव-गाँव, घरो -घर पंचइती के मातर-मेला हे। हिंदी दिवस मनाए जाथे। हिंदी बिंदी ले चिंदी होगे। महिला दिवस मनाए जाथे। महिला प्रताड़ित, उपेक्षित अउ लज्जित-अपमानित हे। बालिका दिवस होथे त कन्या-भ्रूण हत्या अउ नान्हे -नान्हे पीला मन के तको यौन शोषण कोन राक्षस कर डारथे। अभीन -अभी विष्व पृथ्वी दिवस मनाए हवन। पता नहीं धरती के का होही ?
समझदार मनखे मन के बीच रहिते-राहत कुछ-कुछ समझदार होए लगे हौं। तेकर सेति कुछ-कुछ बात ल समझे लगे हौं। कुछ-कुछ बात ल धकिया के भगा तको देथवँ कि तोर -मोर पटरी नइ बइठय भाई, चल अपन रस्ता नाप।
उही धकियाए-भगाए, हटियाए-चेचकारे एकात ठो बात कभू मुड़पेलवा बरोबर पेल के मुंडा ल भसका देथे। जेकर ले समझ के आक्सीजन लेबल कुछ कम होए लगथे।
तब समझ ये नइ आवय कि गाय, बकरी, भेंड़ जइसे उपयोगी पशु के पलइया-पोसइया अउ सेवा-जतन करइया मनखे मन ‘काउमेन’ ‘चरवाहा’ अउ ‘गँवार’ कहाथे अउ कुकुर-बिलई के पोसइया दोगड़िया मन ‘पशुप्रेमी’ कइसे कहाए लगथे।
ठौं-ठौं म रकतबीज जइसे मसगिद्दा, मंदहा अउ मसमोटिहा मन के जुग म मनखे परानी के का होही ? विधाता जानय।
कभू -कभू तो एहू डर लगे लगथे कि मानवता दिवस मनइया दूगोड़िया मन कोनो दिन ले ‘मनखे दिवस’ झन मनाए लगय।

जय जोहार!!
धर्मेन्द्र निर्मल

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