इतवारी – लंगुरवा भइया !!

सियान दाई कहय- अपन रद्दा म जाए कर, अपन रद्दा म आए कर बेटा। अपन रद्दा तो नइ बना पाएवँ। फेर मोर तीरन रेंगे बर पर्याप्त गोड़ हवय। उही सेति सरकारी सड़क ल अपन समझ एक गोड़ ल एति अउ दूसर गोड़ ल ओति फेंकत रेंगत रहेवँ। जइसे बयपारी मन सड़क म समान बगरा के रखे रहिथे अउ धीरे से ओतका जगा ल पोगरा लेथे। डिक्टो उही चाल म तनियाए रेंगत रहेवँ।
सड़क के पाई म परोस के एक झिन माई ल कुकरूस-ले बइठे देख परेवँ। अभीन माई परब के बेला म बेलबेलही ठीक नइ हे। भकरस-ले बाई कहना नजायज अउ नलायकी होही।
परमात्मा तो नोहवँ, फेर ओकर अंष आववँ तेकर सेति बहुत कुछ समझ गे रेहेवँ। तभो ‘चुप चुप बइठे हस जरूर कोनो बात हे’ के रसा ल भीतर कोति घुटकत ओकर आगू म सनम्र निवेदन करत पूछेवँ- ‘कइसे बइठे हस भऊजी ?’
‘देखे देवर बाबू तोर भइया के चाल ….’ स्टाइल म भऊजी अँचरा ल संभालत उठिस-‘तोर लंगुरवा भइया ह कोरोना दवई ले बर गेहे।’ जइसे मैं तनियाए रेंगत रेहेवँ, डिक्टो मोर मुँह अउ आँखी तनिया दिस – ‘का, कोरोना होगे हे ?’
‘नहीं, कोरोना पइत ले ओमन अपन जुड़हा चाय ल कोरोना दवई कहिथे।’
ओतके म लंगुरवा झूपत-नाचत आगे। कहिथे – ‘काली ले नवरात लगत हे भाई।’ नवरात म हाथ नइ लगाववँ, तेकर सेति थोरिक ले बर चल दे रहेंवँ अउ हें हें हें करत गुटका म रचे अपन ताँबा कस दाँत के मोर ले जाँच -पड़ताल करवाइस। मै कहेवँ -‘अच्छा हे।’
घर के पहुँचत ले दवई के जम्मो नस-बल टूटगे। ओकर कोरोना फेर जागगे। भऊजी ले पइसा माँगिस। भऊजी सबो ल झर्रा दिस- ‘ये दे नइहे।’ त लंगुरवा अपन जम्मो रोस, जोस अउ होस ल भऊजी ऊपर झर्राए लगिस- ‘तैं कहूँ ले लान, काँही करके लान, फेर मोर बेवस्था होना चाही।’
कुटकुट ले कुटाए के पीछु भऊजी ‘मंगलसूत्र’ ल निकाल के दे दिस।
बिहान भर ले नवरात्र चालू। नौ दिन ले लंगुरवा गन्ना रस, दूध अउ जूस ढरकाइस। नवकन्या पूजा के पारी आइस। नौ का पूरा पारा भरके कैना मन ल बला-बलाके छकत ले खीर-पुड़ी खवाइस। घोलण्ड- घोलण्ड के पाँव परिस अउ सकत ले दान दक्षिणा दिस। जम्मो कैना, मन म सोचय अउ आपस म गोठियावय- ‘ये कब ले कइसन बड़े भगत बनगे या ?’
‘कोई बात नहीं काली ले फेर कालभैरव बन जही।’
अइसने म एक झिन बिधरमी, बइमान अउ बंचक बयपारी के सुरता आ जथे। वोह गरीब नौकर मन के दिन रात लहू चुसथे। स्कूल म पंखा लगवाए के पहिली ओमा बड़े जनिक नाम लिखवाथे।
काबर के नाम संग जाथे।
मूठा भर चाऊँर ल बाँटही, फेर ओकर पहिली दुवारी म गरीब मन के लाइन लगवाथे।
जिनगी के पहाड़ा म गिनती गिने के मजा अलगे होथे।
अपन घरे -घर के बेटी मन ल बलाके नौ-कैना खवाथे। उन्कर खाए के मन नइ होवय तभो जबदस्ती ले न -ले न कहिके -कहिके खवाथे।
एक रूपिया कमती होए म गरीबीन के बेटी ल दुकान ले बिस्कुट दिए बिना लहुटा देथे।
काबर के उहाँ नाम मिलय न दाम ?
अउ इन सबले बड़े बात -भंडारा करथे, बछर म एक दिन अउ महीना भर ले ये पेपर, वो पेपर, सबो म छपवाथे।
धन हे मालिक,
भंडार भरे।
धन हे देवी,
सहाय करे।

जय जोहार!!
धर्मेन्द्र निर्मल

लउछरहा..