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इतवारी: अन्न हे त टन्न हे, नइते सना सन्न हे !!

भीड़ के कोनो चेहरा नइ होवय, अभाव के चेहरा चुकचुक ले होथे। अभाव के दर्शन करे बर होवय त किसान के चेहरा देख लेवय। भारत गँवइहा अउ किसनहा देश हरे। इहाँ गाँव अउ गाँव मन म किसान मन के भीड़ हे। भीड़ माने अभाव के मेला हे। ते हिसाब ले भारत के कोनो चेहरा नइहे, मुड़कट्टा हे, फेर भारत तो सोनचिरइया ये कहिथे। माने दूमुँहा हे। संगे-संग दूदँत्ता तको हे, एक दाँत खाए के एक देखाए के। जब ये हाथी एके ठन हे, देश एके ठन हे त ये चेहरा अउ दाँत दूठन कइसे ? सोन के चिरइया तिनका के मोहताज काबर ? जगमग महल के कुरिया कुलुप अंधियार काबर ? जम्मो बिपत जग के पेट भरइया भूँइया के भगवान बर काबर ?
कतको बड़े पहलवान हो जाय, पेट म अन्न परे ले टन्न रहिके अँटियाथे। चार दिन लांघन-भूखन रख दे, जम्मो नस-बल राई छाँई हो जथे। अगास उड़इया के तको एक दिन भूँईया म पाँव माढ़थे अउ छोटे-बड़े सबो ह भूँईया के भगवान के ओगारे पसीना के नून ल चाँटके जीथे। महल के रहइया गुनहगरा, अप्पत अउ घेक्खर मन भले उन्कर अभार ल झन मानय। नून सबो ल लगथे। ये बात अलग हे के कोनो ल जादा लगथे कोनो ल कमती। ये कमती अउ जादा के निर्वार भगवान नई करय। वो तो जम्मो ल एके आँखी ले देखथे, एकेच लाठी म हाँकथे। भावना के आँखी, मेहनत के लाठी।
खेती अपन सेति कहिथे भर अउ भाव सर्वे भवन्तु सुखिनः के रखथे। इन अपन मेहनत ले कभू जी नई चोरावय। इन कभू जाँगर चोराए बर नइ जानय, तभे तो कुला खाय माटी तब मुँह खाय भाती के ददरिया गावत-अलापत दिनरात खेत म जीव ल देय कमावत रहिथे। ये बात अलग हे कि नीयतखोर अउ बइमान मन इन्कर संग नियाव नइ कर सकय। तभो येमन टूटहा करम के टूटहा दोना, दूध गँवागे चारो कोना कहिके अपन आप ल समझा लेथे।
डार के चूके बेंदरा, असाड़ के चूके किसान। डार अउ खार दूनो के बेंदरा अपन लक्ष्य ल बिलकुल जानथे-समझथे। खेती म बने उपज होना इन्कर सौभाग्य होथे अउ फसल के नास होना मऊत बरोबर दुखदायी। जिनगी कतकोन अभाव, बिसम अउ बिपत म बीतय इन आसरा के अँचरा ल नइ छोड़य। आसरा भले चेंदरा-चिथिया जावय, अपन मेहनत के चकमक पथरा ल घिसके उहू म चिनगारी जगो लेथे। ये चिनगारी अनन्त-अनन्त उर्जा अउ ऊष्मा के दाहकत भट्ठा होथे। ये चिनगारी संसार ल गति, मति अउ शक्ति देथे। जीत के मुकुट मुड़ म भले नइ परिरै फेर हार काला कहिथे उहू ल नई जानय, हार के रार मता देथे।
राहेर कोदो के कोनो संग नइ बनै तभो इन एक दूसर के पूरक होथे। तभे तो हिजगा के खेती ल भलुवा खाय काहत माटी म माटी मिल कमाथे अउ कहिथे-अधिया के खेती, सहजी के रोजगार, बजारू औरत के संग अउ उधारी कभू नइ करना। सही म देखे बर मिलथे – उत्तम खेती अपन सेती, मध्यम खेती भाई सेती, निक्कट खेती नौकर सेती, बिगड़ गई तो बलाय सेती।
आसरा ले दुनिया चलत हे। लेगही राम त रखही कोन, रखही राम त लेगही कोन। इही आसरा के नाँगर म जाँगर पेर किसान जिनगी कुशियार के रसा निचो लेथे अउ उछाह-उमंग के कतरा बनाके खा लेथे। तभे तो कहिथे- खेती तो थोरी करै, मेहनत करै सवाय, राम चहै वा मानुस को, टोटौ कभूअन आय। इन जानथे कि खेती जुआ हरे। पा गे त पौ बारा, नइतो सरबस वारा-न्यारा। आइस कातिक फुलिस गाल, सावन भादो उही हाल। गाँठ बँधाए जोड़ी संग निभना -निभाना कइसे होथे तेला किसान जानथे। सुख होवय के दुख होवय जिनगी के गाड़ी दूनो पाटा के सुमत बिगर अधबीच्चे म धपोर दिही, तेकर सेती संघेर के चलना अपन परम करम धरम मानथे। जिनगी के संगवारी रिसाए ल धरथे त संगी ल अउ किस्मत रिसाए बर धरथे त किस्मत संग ठट्ठा अउ हाँसी-मजाक करत ओकर सुघरई ल सहिरावत मना लेथे। मया पझराके मजा उड़ा लेथे। ठाढ़े खेती गाभिन गाय, तब जानौ जब मुँह में जाय। सम-बिसम, सुकाल-दुकाल अउ सम्मत-बिपत म सामंजस्य ल बइठारे बर किसाने जानय। उन जानथे कि पंचमी कातिक शुक्ल की जो होवै शनिवार, तो दुकाल भारी परै मचिहै हाहाकार। जब बरखा चित्रा म होय, सगरी खेती जावय खोय।
ये सुकाल के बेरा ल तको जानथे -रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय, कहै घाघ सुनि घाघिनी स्वान भात नही खाय।
आद्रा बरसे पुनर्वसु जाय, दिए अन्न कोई न खाय।
आद्रा के बरसे, महतारी के परसे, जऊन नइ अघाइस तऊन जिनगी भर तरसे।
गाँव म घर नहीं, खार म खेत नहीं, तभो ले इन जिनगी ले हार नइ मानय। अपन मेहनत के भरोसा खुद संग दुनिया के पेट ल पाल-पोस डरथे। शायद इंकर इही जीवटता ल देख के दुनिया जलथे। ठौं-ठौं म इन ल कमजोर करे के ताना -बाना बुनथे। तरी वाले तो तरी वाले ऊपर वाले तको कभू इंकर नरी ल दबा-चपक के राखे बर दूब्बर बर दू असाड़ लान देथे।
गँहू संग कीरा रमजाए कहिथे, तेन सोला आना सही हे। करनी कोनो करय, भरय कोनो। बिकास के मुकुट पहिरे मटमटावत वर्तमान पवन, पानी अउ माटी ऊपर कतका अति करत हावय, बिख बोवत हावय अउ मँगरा के आँसू रोवत हावय, सबो जानत हे तभो बिलई कस आँखी ल मूँदके मुँह मिटकियाए बइठे हावय। आँखी ल मूँदके बिलई भले सोचय कि कोनो ल नई दीखत हे, ये ह ओकर भरम हरे। ये भरम के भूत जब तक नई उतरही दुनिया नई उबर सकय। माटी के मान, पानी के जान अउ हवा के शान ल मितान कस मया समोख के बनाए रखना सबो के कर्तव्य हरे। भूत के छूत ह किसाने भर ल काबर लगय ? मेहनत करय कुकरा, अण्डा खाय फकीर। ये लकीर जब तक नइ मेटाही बिपत के सुरसा अइसनेहे मुँह बाए दुनिया ल खाए बर दँऊड़ते रहिही। अक्कल के न बूध के, बनिया मारे कूदके। एसी रूम म बइठ के किसान अउ किसानी के गोठ करे भर ले किसान के किस्मत नइ सँवरय।
पानी म हगही तेन उफलबे करही। दुनिया भोरहा म झन राहय कि हमरे भर चिक्कन चाँदर रहे ले जग म सुघरई आ जही। करनी दीखय मरनी के बेर। बिपत बताके नई आवय, न ककरो नेवता झोंकय। जब आ परही त कतको आपत्ति कर वो अतेक अप्पत होथे कि अपन जम्मो सँऊख पूरा कर लेही कि मनखे के जम्मो सँऊख पूरा हो जही।

जय जोहार !!
धर्मेन्द्र निर्मल

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