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इतवारी: बरा + बरी = बराबरी !

नान्हे लइका गणतंत्र दिवस के बेरा म बोचकत पैंट ल संभालत आगू बढि़स अउ कागज म लिखके लाने अपन भासन पढ़े ल लगिस।
आदरणीय माई पहुना, गाँववासी अउ मोर सहपाठी भाई -बहिनी हो ! आज मैं गणतंत्र दिवस के सुग्घर बेरा म अपन नान्हे मुँह ले नानमुन बिचार रखे बर जावत हाववँ। नान्हे लइका बने फोर -फरिहाके नई गोठिया सकय तभो ओकर तोतरी बानी के गोठ-बात सबो ल बने सुहाथे-भाथे अउ नीक लागथे। मोला अपने लइका जानके मोर टूटे-फूटे भाखा म तको मोर भाव ल समझ जहू अउ मोर जम्मो गलती ल छिमा कर देहू इही आसरा हवय।
घिना ह घिनहा ये न पोसव- पालव येला
मन म फोकटइहा हे निकाल जी येला।
न तोर, न मोर ये न येकर, न ओकर
ये वतन सबो के हरे बचालव जी येला।।
संगवारी हो, जब हमन बीमार परथन त दऊँड़े-दऊँड़े डाॅक्टर तीरन जाथन। डाॅक्टर ह हमर स्वास्थ्य अउ तंदुरूस्ती खातिर हमन ल गोली-दवई देथे। दवई -गोली के संगे-संग परहेज तको बताथे। सही म देखे जाय त दवई -गोंटी ले जादा परहेज ह असरदार होथे। आधा ले जादा बीमारी तो परहेजे ले दूरिहा होथे। डाॅक्टरी भाखा के इही परहेज ह नियम, कान्हून या सरकार के भाखा म संविधान कहाथे।
आज हमन उही संविधान के 72 वीं वर्षगाँठ मनावत हावन। सुग्घर सुहावन सुराज ह तो देश म 1947 के हमागे रिहिस हे। फेर अतेक बड़ देश जिहाँ किसम-किसम के धरम, आनी -बानी के जात-पात अउ रंग-रंग के सम्प्रदाय के मनखे रहिथे। नानम प्रकार के भाखा बोले जाथे। सबके आने -आने खान-पान, रहन-सहन, पहिरन-ओढ़न, संस्कृति, रीत-रिवाज अउ तीज -तिहार हवय। इमन ल एके म बाँधके कइसे रखे जाय। ये बात ह हमर सियान मन बर बड़ गुनान के विषय होगे रिहिस हे।
रंग-रंग के, आनी-बानी के, किसम-किसम के फूल ल सूत ह गूँथके सुग्घर माला के रूप धरा देथे। उही किसम संविधान ह जम्मो झिन ल बरोबर बेवस्था देथे।
उठव भूइँया के अमर बेटा हो !
फेर नवा निर्माण करव।
जन-जन के जिनगी म फेर
उछाह नवा परान भरव।
देश के बेवस्था ल बने सुग्घर अउ सुराज बनाए रखे खातिर, सबो ल बरोबर सुविधा अउ भागीदारी देहे खातिर जऊन कान्हून -कायदा बनाए गे हवय उही ल संविधान कहिथन। ये संविधान ह 26 जनवरी 1950 के लागू होए रिहिस हे। जेकर सुरता म ये पावन-मनभावन परब ल मनावत हवन। ये राष्ट्रीय परब हरेक बछर 26 जनवरी के मनाए जाथे।

तिरंगा शान ये हमर तिरंगा इमान ये हमर
तिरंगा मान ये हमर इही मुस्कान ये हमर ।
येकर बिजती जऊन करही वो बइरी ये हमर
तिरंगा हे तभे हम हन इही पहिचान ये हमर।।

देश के सुराज के संगे-संग येकर एकता अउ अखण्डता ल बनाए रखना हमर परम कर्तव्य हरे। एकरे सेति संविधान के पालन करना चाही। येकर सन्मान करना चाही।

जमाना भर म मिल जही दीवाना कतको
फेर बतन ले सुग्घर कोनो सजन नई होवय।
नोट म लपेटाके सोना म समेटा मरगे कतकोन
फेर तिरंगा ले सुग्घर कोनो कफन नई होवय।।

कहिथे हाथी बाँधना साहज अउ सरल होथे फेर ओला पालना -पोसना ओतके मुश्कुल होथे। अतेक बड़ देश ल बेवस्थित रूप म चलाना कोनो पुतरी-पुतरा के खेल नोहव जेमा खड़े हो जा, बइठ जा, थोरिक अपने अपन बोल गोठिया ले अउ होगे। नानमुन परिवार ल तको सही सलामत चलाना भारी मुश्कुल होथे, तेन तो अतेक बड़ देश के बात हरे। येकर बर पोठ बेवस्था चाही। मन ल पोठ, बेवस्था ल रोंठ अउ करम ल मोठ करे ले दुर्भाग हँ तको मडि़या जथे। ,

टुटे मन ले कोनो खड़े नइ होवय।
छोटे मन ले कोनो बड़े नइ होवय।।

देश के बेवस्था ल सुंदर बनाए रखना हम सबो के जुम्मेदारी हे। सबो ल बरोबर सुविधा अउ जुम्मेदारी देहे ले ही ये बड़का बूता हँ सिध पर सकथे। अकेल्ला चना हँ भाँड़ ल नई फोर सकय तइसे एक अकेल्ला के बूता नोहय ये हँ। एकर खातिर जम्मो झिन ल जुरमिल के संघरा जोर लगाए बर परही।

जागव भारत के वीर हो, माँ हँ फेर गोहरावत हे।
महतारी के दुख हरव, फर्ज तुँहला बलावत हे ।।

कान्हून सबो ल एक आँखी म देखथे। छोटे बड़े सबो ल बराबरी के दर्जा देथे। हमन ल इही भाव रखत अपन कर्तव्य के निर्वहन करना हे संगे संग देश अउ कान्हून के सन्मान करत अपन जुम्मेदारी निभाना हे।
नेता बनना हे त सुभाष बनके देखावव,
नेतृत्व क्षमता ले सरि जग म छा जावव।
अफसर बनना हे त बनव शेषन खैरनार,
तुँहर अस्तित्व ल सुरता रखय संसार।
सन्यासी बने बर हे त बनव विवेकानंद,
भारतीय संस्कृति, ज्ञान के बाँटव परमानंद।

लइका के पीछू मुखिया के पारी अइस। वो अपन चुकचुक ले पहिरे नवा कपड़ा के खुँजरी ल सारत सोझियावत उठिस। आँखी ल चुकचुक करत कहे लगिस- ‘मैं अब का बताववँ। जऊन बताना रिहिस हे तऊन सबो ल तो ये लइका बता डारिस। मैं अतके कहिना चाहथौं कि कान्हून बरोबर हमू मन ल सब ल एके आँखी म देखना हे। सब ल बराबरी ले रहना हे। हम तो सब ल एकेच आँखी म देखथन, एके लाठी म हाँकथन अउ सबो संग बराबरी ले रहिथन। ये परब हँ इही शिक्षा देथे। येला गाँठ बाँधके रख लेवव। ये हँ सिरिफ बूँदी खाए के तिहार नोहय। जऊन ठोमहा-पसर परसाद पानी मिलही तेला प्रेम से धर लेहू। अतका मिलना रिहिस, अइसे होना रिहिस, असइे झन गावत रहिहू। भासन खतम।

बूँदी बाँटे के बेरा आगे। मुखिया जी बेवस्था देखे बर भीतर गै।
‘देखव रे बाबू हो, सब ल बरोबर पूरय तइसन देख-देखके बाँटहू।’ अइसे खिसियावत चार पाकिट बूँदी ल अपन खीसा म गोंज लिस।
लइका भोलाराम ठहिरिस- ‘का इही बराबरी ये ?’ अपन मन ले सवाल करिस।
समझदार मुखिया समझदार के संगे-संग हुसियार रिहिस। भोलाराम के थोथना म लिखाए सवाल ल पढ़ डारिस। दाँत खिसोरे लगिस जना मना काहत हे – ‘बेटा ! हमन समाज के बरा हरन, तेल म तऊँर के ललियाथन अउ तुमन बरी हरव, सुक्खा कराही म चम्मच भर तेल म भूँजाथौ। बरा ल बरा बरोबर, अउ बरी ल बरी बरोबर मिलना चाही कि नहीं। होगे न बराबरी।’
‘शिक्षा-बेवस्था अइसे होना चाही ?’ भोलाराम के अंतस ले सवाली जिन्न के निकलती होगे ओति छुट्टी के घण्टी बाजगे–‘ठिन्न!’
जिन्न फेर भोलाराम के अंतस म घुसरगे।
कभू -कभू किताबी कीरा बने ले जिनगी कीरा जथे।
भीतर जाके जिन्न भोलाराम ल जिनगानी के जम्मो सबक एके दिन म याद करा डरिस।

जय जोहार !
धर्मेन्द्र निर्मल

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