इतवारी: घट के ही देवा ल मनइबो !!

मनखे ल अंधियार म नींद नई आवय। अंधियार के भयानकता के डर ह मनखे के मन ल चिमटे-पोटारे लेथे। मच्छर चाहथे कि अंधियार के सत्ता सरलग साहित रहय। काबर के अंधियार म मच्छर तन ले लहू चूसके अपन जिनगी सँवारथे। समाज म तको लगभग इही मानसिकता कहूँ न कहूँ जुगुर -जागर जोगनी कस साँस लेवत जीयत जागत रहिथे। समाज म तको कुछ मच्छर किसम के मनखे होथे जऊन समाज के कमजोर वर्ग के लोगन के लहू चूसे म अपन सफलता समझथे। ये विकास के तनाछेदक समाज के फूलचूसक कीरा मन ल संत फूटे आँखी नई सुहावय। संत वो अव्यवस्थित, अंधियार अउ अवचेतन समाज के चेतना होथे।
आधुनिक समाज म जीवलेवा, जनशोषक अउ जमाखोर डाॅक्टर ल भगवान के संज्ञा दे सकथन त संत ल देवदूत कहना बिना कोनो लाज, लाग-लपेट अउ लपरही म उचारे अतिशयोक्ति कथन नई कही सकन। चेतना के दूसरा नाम संत हे। चेतना ही अंजोर हरे। अंजोर के सजोर अउ पुरजोर रूपे ह गुरू हरे। गुरू के शाब्दिक अर्थ इही हे कि गु – माने अंधियार रू -माने अंजोर अर्थात अंधियार ले अंजोर कोति ले जाना। समाज म चेतना जगोके अंधियार ले अंजोर कोति जऊन ले जाथे उही गुरू होथे।
खेत, कोठार अउ कोठी म निमगा अउ आरूग अन्न नई होवयं। वोमा एक न एक दाना दूसरो के होथे। अन्न के कन -कन मिलके अन्नपूर्णा के भंडार भरथे। वोइसनेहे मनखे मनखे मिल समाज के निर्माण करथे। मनखे मनखे के मेल ले भीड़ तको बनथे फेर भीड़ के कोनो चेहरा -मुहरा नई होवय। हाँ, भीड़ ल स्वारथ के बड़का मुहरा बजूर बनाए जा सकथे। धान कटोरा छत्तीसगढ़ म गढ़ भर छत्तीस ठन नई हे। इहाँ के आब, हवा, पानी ह आनी -बानी के कतकोन अकन धर्म, पंत, समाज अउ संस्कार ल अपन अंतस म संघेरे समोए हवय। ये किसम ले देखे जाय त छत्तीसगढ़ अपन छाती म बड़ गरब अउ गुमान भरे इतिहास के थाथी धरे बइठे हे।
पंथ, संस्कार अउ समाज के बियाबान जंगल म एक बिरवा सतनाम पंथ के तको हे। जेन सरल, सहज अउ सादा जीवन ले सरोकार रखथे। सतनामी समाज सत्य ल जानथे, मानथे अउ तानथे।
पन्द्रहवी सताब्दी म एक संत होइस गुरू रविदास। वोह समाज म बगरे समाजिक असमानता, भय, शोषण अउ अत्याचार के छइँहा ले मुक्त एक शहर के सपना लिए आंदोलन शुरू करीस। वो सपन-शहर के नाम बेगमपुर रखीस जिहाँ दुख -दर्द बर थोरको जगा झन रहय। जेकर अनुयायी मन साधु या साध कहावय। वोमन निराकार अउ निर्गुण ब्रम्ह जेला सतपुरूष या सतनाम कहय उही ल मानय। वो परम्परा ल ओकर शिष्य ऊधोदास ह जीवित रखीस जऊन पीछू बीरभान (1543-1658) तक पहुँचिस जेन ह सतनामी पंथ के नींव रखीस।
बीरभान पूर्वी पंजाब (हरियाणा) के नारनौल तीर बृजसार के निवासी रिहिस। बीरभान सिक्ख सम्प्रदाय के प्रमुख ग्रंथ -गुरू ग्रंथ साहेब के बरोबर एक ठो पोथी लिखिस जऊन ह सतनामी समाज बर पूजनीय हवय।
औरंगजेब के शासनकाल म साध बीरभान अऊ ऊधोदास दूनो भाई साध मत के प्रचारक रिहिन। साधमत के अनुसार अपन ईश्वर निर्विकार ब्रम्ह सतपुरूष के छोड़ काकरो आगू म माथ नवाए के मनाही रहय। येला औरंगजेब अपन अपमान समझ दमन चक्र चला दीस। साधमत के अनुयायी सादा जीवन उच्च विचार के समर्थक, मेहनत के धनी अऊ दमन-अत्याचार के भरसक बिरोधी रहिन। इन हिन्दू साधु मन अपन आप ल सतनामी अऊ मुण्डी तको कहय। 1672 में उन औरंगजेब के दमन के बिरोध म हथियार उठाके खड़ा होगिन।
औरंगजेब के अत्याचार, अपमान अऊ दमन के छइँहा ले सतनाम पंथ ल बचाए बर बीरभान अऊ ऊधोदास नारनौल ले पलायन करके सारंगढ़ आ गे। छत्तीसगढ़ के सारंगढ़ जिला जेकर पूर्व नाम सिंहगढ़ रिहिस। राजा बीरभान अऊ ऊधोदास सारंगढ़ के पहिली राजा माने जाथे। उन्करे बगराए सतनामी समाज म गुरू घासीदास बाबा (1756-1850) अवतरिस। वर्तमान बलौदाबाजार जिला के गिरौदपुरी म 18 दिसम्बर 1756 के अवतरे बाबा घासीदास जी ह 18 वीं सदी म पुनर्जीवित करके बड़का अउ पोठ स्वरूप देके ये पंथ ल सँवारिस। बाबा घासीदास जी ह सत्य अउ ज्ञान के खोज बर गिरौदपुरी के छाता पहाड़ म आश्रम अउ समाधि लगाइन, सोनाखान के जंगल म कठोर तपस्या करीन। बाबाजी जीव हत्या, माँसाहार, चोरी-जुआ, नशा, व्याभिचार, जाति-पाति के असमानता अउ मूर्तिपूजा के घोर विरोधी रिहिन। उन सत्य-अहिंसा, धैर्य, लगन, करूणा, कर्म, सरलता अउ व्यवहार के प्रबल पक्षधर रिहिन। अपन इही सातो बात ल लेके सात शिक्षा सिद्धांत बनाइन अउ सतनाम धर्म के स्थापना करीन। ओकर सबले बड़का अउ सजोर सूत्र रिहीस – मनखे मनखे एक समान। वोह इही एक मंत्र – अपन घट के ही देवा ल मनइबो, मंदिरवा म का करेल जइबो के भरोसा समाज ल एक सूत्र म बाँधके रखीन।
सतनामी पंथ म गुरू घासीदास के जयंती 18 दिसम्बर के मनाए जाथे। बाबा के सिद्धांत अउ सत्य के प्रतीक स्तम्भ जैतखाम म पालो चढ़ाये जाथे। जैतखाम सरई लकड़ी के बने होथे जेकर तिलिंग (ऊपर) म लोहा के छेदा वाले तीन ठो खीला ठोंकाए रहिथे जउन तीन गुन रजो, तमो अउ सतोगुण ल दर्शाथे। जेमा सादा जीवन उच्च विचार ल संजोए चारो दिशा के प्रतीक चौकोर सादा झंडा लगाए जाथे।
ये दिन समाज म घरो -घर मालपुआ बनथे। मालपुआ वैष्णव समाज के तको प्रमुख व्यंजन हरे। मालपुआ अउ रायता बिगर वैष्णव समाज के समाजिक बूता नई उरकय-उसलय। मालपुआ लोहा के कराही म गँहू पीसान ले घींव म बनाए जाथे जेमा सुक्खा फल मेवा -मिश्री, काजू – किसमिस सब डारे जाथे। मालपुआ के छोटे भाई बोबरा चीला होथे। येला तेल म तलके पीसान अउ गुड़ म फेंटके बनाए जाथे। जइसे गरीबहा बर कसार कलेवा होथे । ओइसनेहे छोटका मन बर बोबरा चीला ह मालपुआ होथे।
एक चीला चाँऊर पीसान के तावा म तेल चुपरके बनाए जाथे। इही चीला पता नई कोन डाहर ले सूट-बूट पहिर के आ गे हवय अउ अपन आप ल दोसा कहीथे। समे काकरो लागमानी नई होवय। वोह सबो के सूट उतार देथे। चीला अउ दोसा के मितानी अउ अंतर्भेद कब, कहाँ अउ कइसे होइस, एक न एक दिन ओकरो पता लग जही। तब तक बर

जय जोहार !!
धर्मेन्द्र निर्मल

लउछरहा..