इतवारी: तुलसी के बिरवा ल चौरा म लगाले दीदी…… !!

कातिक अंजोरी पाख के एकादशी ल देवउठनी (जेठउनी) एकादशी के नाम ले जाने जाथे। देवोत्थान एकादशी, प्रबोधनी एकादशी तको कहिथे। जेठउनी ल छोटे देवारी तको कहिथे। छत्तीसगढ़ म जेठ बड़े ल कहिथे। असाढ़ अंजोरी एकादशी ले कातिक एकादशी तक चौमासा/चातुर्मास कहाथे। चौमासा म देवता मन सुते रहिथें। ये बेरा म शुभ काम के मनाही होथे। एकादशी चातुर्मास अवधि के बुढ़ापा/समापन के प्रतीक हरे। इही दिन क्षीरसागर म शेष सैय्या म सुते भगवान विष्णु योगनिद्रा ले जागथे। एकादशी के दिन ले कातिक नहाना अउ जम्मो शुभ काम मन के श्रीगणेश होथे।
ये दिन भगवान हरि के एक रूप शालीग्राम (सालिकराम) के महारानी तुलसी संग बिहाव करे जाथे। श्रीहरि ल तुलसी महारानी अबड़ प्रिय हवय, उही पाय के तुलसी के एक नाम हरिप्रिया या विष्णुप्रिया तको हावय। तुलसी के एक पत्ता चढ़ाए ले श्रीहरि ल जऊन सुख अउ संतोष मिलथे वो हजारो हाँड़ी अमृत अउ हजारो टन अन-धन चढ़ाए ले नइ होवय। शास्त्र म बताथे कि जऊन ह श्रीहरि ल तुलसी के एक पत्ता चढाथे तऊन हजार गऊदान अउ अश्वमेध यज्ञ के बरोबर पुनप्रतापी होथे।
इतवार के दिन तुलसी पत्ता टोरे के मनाही होथे। मैं जानत हौं अब आपके माइंड म ठंडा-ठंडा कूल-कूल एक प्रश्न झूल गइस होही -कहूँ एकादशी इतवार के परगे त ? मोर दिमाग के गदहा रेंके लगथे – हरि के बिहाव होवय अउ हरिप्रिया नइ रहिही, त बिहाव कइसे सम्पन्न होही ?
धानी छत्तीसगढ़ प्रकृति पूजा के अलकरहा धनी हे। इहाँ के हरेक परब अउ तिहार प्रकृति ले जुड़े रहिथे। त जेठउनी एकादशी ह काबर परगोतिया बरोबर प्रकृति ले जातबाहिर रहिही। जेठउनी तको प्रकृति अउ वनस्पति के पूजा के परब हरे।
तुलसी के बिहाव कुशियार के मंडप तरी सम्पन्न करे जाथे। बिहाव के नेंग म जऊन गठबंधन होथे वो ह बड़ गुरतुर अउ गदगद ले मया पिरीत ले भरे होथे। कुशियार जिनगी म मया रस के प्रतीक हरे।
जहाँ गाँठ वहाँ रस नहीं, ये सब जानत कोय।
मड़वा तरी के गाँठ में, गाँठ गाँठ रस होय।।
जेठउनी के दिन कुशियार भर हुशियार नइ होवय। एकर संगे-संग कच्चा सिंघाड़ा, चना भाजी, बनबोइर, भाँटा, अमरूद जेला छत्तीसगढ़ म बीही कहिथे, इन मन सब बरतिया बनके आथे। फरहारी के माँदी म तिखुर के कतरा, मन ल तर कर देथे त कोंहड़ा पाग ले उमंग -उछाह जागके उपरहा टन्नक हो जथे।
एकादशी के ब्रत म अन्न के सेवन नई करे जाय। छत्तीसगढ़ म जेठउनी के दिन ले नवा फर-फूल अउ साग-भाजी टोरे के मुहतुर करथे। चना भाजी ल जतके टोरथे ओतके वोह उल्होथे-घऊदथे। साग के साग अउ फसल के बढ़वार। एक पंथ दू काज। दुनिया भर के दवा -दारू ह किसान के चिमटी म धरे-गठियाए पइसा ल नँगाए के तरीका हरे। नौ महीना ले गरभ ल बोहिके जँचकी के पीरा ल जेन महतारी सहीथे तेन ह मया के मरम अउ लइका के सेवा-जतन ल तको जानथे। ये बात अलग हे कि मया के मराय, का नइ कराय। बयपार के जमाना म बिज्ञापन जग बौराना।
अँगना दुवार ल गोबर म लीपके पबरित करे जाथे। चाँऊर पिसान ल घोरके गाय कोठा ले लेके अँगना तक सुग्घर चऊँक पुरथे। अँगना भर रिगबिग ले चऊँक ल देखके अइसे लगथे जानो मानो चाँदनी अगास ले छिटक के अँगना म उतर आए हे। इही ल देखके कखरो अंतस ले गीत पझर के झरे लगिस होही – चिटिक अंजोरी निर्मल छइँहा, गली गली बगराए वो ….।
गाँव के चरवाहा ल बरदीहा कहिथन। बरदीहा घर के माइलोगन मन घरो-घर जाके हाँथा (भित्तिचित्र) देथे। संझा अँगना के बीचो-बीच पीढ़ा मड़ाके ओकर ऊपर सूपा भर धान, नवा धोती यथाशक्ति दान-दक्षिणा रख देथे। धान भरे सूपा म नवा दीया बारके स्थापित करे जाथे जेला सुकदना कहिथे। घर के जम्मो झिन येकर पूजा करथे, येला सुकदना पूजा कहिथे। धान ल सुख के दाना कहे जाथे। इही सुख के दाना ह हाना के ताना बाना गढ़ छत्तीसगढ़ ल धान के कटोरा बना दिस। कहिथे कि छत्तीसगढ़ म छत्तीस हजार किसम के धान होवत रिहिसे। अब तइहा के बात होगे।
रतिहा बरदीहा बाजा-गाजा संग सोहई अउ गौठां धरके आथे। सोहई अउ गौठां मँजूर पीख अउ परसा जर के बाँख ले बनाए जाथे। नंदीश्वर के वंशज गाय-गोरू मन के ये सिंगार सोहई अउ गौठां ल कन्हैया वंशज बरदीहा मन अपन हाथ ले बनाए रहिथे। गाय -भँइस ल सोहई अउ बइला -भँइसा ल गौठा बाँधे जाथे। सोहई बाँधत बेरा बरदीहा सुग्घर दोहा पारथे। सोहई बाँधे के पीछू गोबर के लाड़ू बनाके सुकदना तीर जाथे। सुकदना के धान म गोबर के लाड़ू ल लपेटके कोठी, ढाबा म बने हाँथा ऊपर मारके चटका देथे-
धन रे चौकी चंदन भइया, हरियर गोबर ले लिपाय।
गज मोतियन के चऊँक पुराए, जेमा सोने के करसा मड़ाय।।
जाए के बेरा उन मन मालिक -ठाकुर ल ये असीस घलो देवत जाथे़-
जइसे के मालिक लिए दिए, तइसे देबो असीसे।
रंगमहल म बइठौ मालिक, जीयव लाख बरिसे।।
छत्तीसगढ़ संस्कार अउ समभाव म बड़भागी हे। इहाँ के कमइया किसान ऊँच-नीच के भेदभाव ल सुमत के कुदारी ले खन के पाट देथे अउ गा लेथे – आज डिपरा ल खनके डबरा पाट देबो न….। ये सुमत ल देख कतकोन जलनखोर परभाखिया मन ह उजबक, बैचकहा अउ बंचक किसम के प्रश्न उछर देथे – गजब छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ बकत-बखानत रहिथस। धन्यवाद ल छत्तीसगढ़ी म का कहिथे बता ? उन्कर मंघार म ठेंगा लाठी के मार हरे ये दोहा अउ ये असीस हँ। इहाँ असीस के परम्परा हवय, धन्यवाद के नहीं। तोर धन्यवाद ल पा-पोटार के चूम-चाँट देन, ये हमार मया के खुमरी हरे, कमजोरी के भँदई नोहय।
छत्तीसगढ़ म सकताहा माने शक्ति के उपासक मन जेठउनी के अउ कबीरहा मन पुन्नी के दिन सोहई बँधवाथे। कतकोन जगा जेठउनीच ल जेठउनी पुन्नी अउ पुन्नी ल बूढ़वा पुन्नी तको कहिथे।
माने जाथे कि जेठउनी के दिन ले जड़काला माने शीतरितु ह धुँगिया उड़ावत आथे अउ लइका -सियान सबो ल अपन कारी कमरिया भीतर पोटार के सकेल-धर लेथे। ये दिन फरहारी के पीछू छितका देहे के परम्परा हावय। जेमा माई पिला सकेलाके जुन्ना चरिहा, झाँपी, सूपा, टोपली, बाहरी अउ झँऊहा ल सकेलथे। ओकर हुम-धूप देके पूजा करथे, तेकर पीछू ओकरे भूर्री बारके तापथे। सियान मन कहिथे कि जेठउनी के भूर्री के ताप ले कतकोन अकन बीमारी मन जर बर के खप जथे।
तुलसी बिहाव/जेठउनी ह मुख्य रूप ले वनस्पति पूजा के तिहार हरे। तुलसी ल नानमुन पौधा भर झन जानय। देखन म छोटन लगे घाव करे गंभीर कस एकर गुन जझंरगा हवय। तुलसी कलजुग म अमृत हरे। ये ह ज्वर, खाँसी, संधिशोथ, मूत्रदाह, पथरी, कृमि, वायुविकार, चर्मरोग के दवा होए के संगे-संग उत्तम गर्भनिरोधक तको हरे। तुलसी के चार पत्ता रोज खाए ले पेट के बीमारी नई होवय। दूध म पाँच ठिन तुलसी पत्ता अउ एक ठो लौंग उबालके पियाए ले लइका मन के पसली तीरना बंद हो जथे। श्यामा तुलसी के 40 ठिन पत्ता ल पीस के मीठा दही माने ताजा दही संग बिहिनिया खाली पेट सेवन करे ले केंसर जइसे बीमारी ले बाँचे जा सकत हे। सिरदर्द, नजला, जुकाम, बुखार, श्वासनली म सूजन अउ दर्द, मलेरिया अउ बदहजमी बर तो तुलसी के चाय ह रामबाण दवा हरे। शर्त ये हे कि चाय विधिपूर्वक ढंगलगहा बनाए जाय – 7 से 11 तुलसी पत्ता, दू ग्राम अदरक अउ सात नग काली मिर्च ल 200 ग्राम पानी म उबालैं। दू मिनट पीछू ओला छानके ओमा 100 ग्राम उबले दूध अउ मिश्री नइतो शक्कर डारके गरमे-गरम पी लेवय अउ ओढ़के पाँच-दस मिनट बर सुत जावय। सफेद पानी म तुलसी अउ शहद के रस एक -एक चम्मच पिये ले अराम मिलथे। मूत्र संस्थान के पथरी म तुलसीबीजा के चुरन आधा ग्राम शहद के संग दिन म तीन पइत लेना चाही।
वैज्ञानिक मन मानथे कि तुलसी के बिरवा जिहाँ होथे उहाँ छै सौ फीट तक रोगहा कीरहा मन नई आ सकय। ओमा जँऊहर किसम के प्रतिरोधक क्षमता होथे। तुलसी के पत्ता मिले चाँऊर म कभू कीरा नइ लगय। ये किसम ले तुलसी ह एक दिव्य, चमत्कारी अउ अम्त बूटी हरे। तभे तो सियान मन कहे हवय कि-
खाय कागजी नींबू को जो, तुलसी बिरवा रोपै।
बेद पंसारी करम को झँखे, घर म मौत न कोपै।।
संभवत तुलसी के इही गुन ल देखके ककरो मन म उछाह के पीका फूटिस होही अउ ये गीत के बिरवा जागिस होही –
तुलसी के बिरवा ल चौरा म लगाले दीदी, मोंगरा लगाले कूआँ पार म…..

जय जोहार !!
धर्मेन्द्र निर्मल

लउछरहा..