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इतवारी: भाखा के लड़ई !

बड़ दिन बाद भईया पढ़ई करके घर लहुटिस। छोटकी बहिनी खुषी के मारे उचक के ओकर पीठ म चढ़गे। भईया कहिथे – ‘अब बस बहिनी, आई एम वेरी टायर्ड’।
‘का ? तोर टायर फटगे’ ?
भईया अपन हाँसी ल नई थाम सकिस। भकभकाके हाँसत कहिथे- ‘अरे यार ! मैं थक गे हववँ’।
‘अब तैं अपन हुसयारी झन मार, सोज्झे-सोझ कहा न कि थके- माँदे हवँ कहिके’।
‘त अतेक लड़थस काबर भई, काके अतेक बैर -बिरोध करथस समझ नइ आवय’ ?
‘कइसे समझ आही, अक्कल राहय त ? लड़हूँ काबर नहीं। महतारी हँ बड़ा मयारू बनथे। अतका बछर बीत गे संग म राहत। एक दिन मया के गीत गाके नई सुुनाए-सुताए सकिस। दादी हँ दू दिन बर गाँव ले आईस तेन हँ लोरी सुना के थपकाईस। बड़ सुग्घर नींद आईस। जउन हँ अब मोर अन्तस म समाके राज करे लगिस। मोर बर राज गीत बनगे। उही दिन जानेवं -समझेवं महतारी भाखा ल, भाखा के मया ल, मया के गीत – लोरी ल। ददा आॅॅफिस ले आथे अउ फाईल मनके हिन्दी ल झर्राथे, तैं हुसियारचंद आये अपन अंग्रेजी झाडे़, मैं करवँ त करवँ का ? सीखौं का ? बोलौं का’ ?
मैं मुचमुचावत देखत रहेवं। दूनों झिन के नजर मोरे कोति रिहिस हे। मैं चाहते हुए तको मौनी बाबा बनके रहिगेंव। कभू -कभू मुक्का रहई तको बक्का ऊपर भारी पर जथे अउ बड़का बूता ल कर जाथे। मैं जानत रेहेवं के मोर एक इच्छाशक्ति ले दूनों झिन के बहस थम सकत हे। मैं घरू केबिनेट के मुखिया होथवँ, जउन बोली मंै बोलिहौं उही हँ घर बर राजभाषा हो जही। फेर मैं चाहथवँ इन लड़ते रहय। बिलई मन के झगरा म मऊज मारे बेन्दरा। इन्कर लड़ई चलत रहिही तभे तो मोर मुचमुचई पागा पहिरे जीयत जागत रहिही।
फेर उन्कर दादी मोर महतारी ये। कतको होवय माई माई होथे पीला हँ पीला। ददा के पनही पाँव म आए भर ले लइका पगरइत नइ हो जाय। ओकर बर बरोबर नहीं त कम से कम आधा -थोरहा कुबत अउ काबिलियत चाही। मोर राजनीति ल ओहा समझगे। उमन ल समझावत कहिस- ‘बेटा ! लड़ौ झन, अपन आप ल मजबूत बनावव। तुमन अपन आप ल जतके मजबूत बनाहू, आगू वाले ओतके निजोर परही अउ थोथना ल ओरमा के आगू म घुटना टेक देही।
लड़े ले शक्ति के ह्रास होथे अउ मनखे कमजोर’।
बेटी ! देख, समुद्र में नदियाँ के धार आके मिलथे त सकभर नदियाँ के धार हँ समुद्र के पानी ल अपन रंग म रंगे के उदीम करथे। जोर भर समुद्र के पानी ल पीछु कोति ढकेलथे। आखिर म नदियाँ थक -हार के खुदे समुद्र म मिल जथे। कहूँ समुद्र पँगुरहा अउ पीनपीनहा होतिस त नदियाँ हँ ओला पेल -ढपेल के अपन रंग म रंग डारतिस। जेन घर म चमाचम सियानी होथे उहाँ पहुना के झमाझम निपोर रंगझाँझर नइ मता सकय।
समुद्र के सजोर होए के परिणाम ये जउन नदियाँ के धार ओमा समा जथे। समुद्र के सत, संकल्प अउ साहस के आगू नदियाँ के जिद ल झूके बर परथे।
ओइसने तहूँ अपन सपना म संकल्प के पाँखी लगा, ओला खुल्ला अकास देके ससन भर उडावन दे। अपन साहस अउ हौसला ल गवाँ के अपन आप ल कमजोर झन बना।
पेड़ जिहाँ कमजोर होथे उहाँ कीरा-मकोरा अउ आनी -बानी के बीमारी मन झूमे लगथे, झूपे-झपाए परथे। जिहाँ पेड़ सजोर होथे उहाँ कीरवा मन के उदबत्ती नई जलय।
ये बाहिर ले जउन अंग्रेजी ल धर के आए हे, चारेच दिन रहिही। तंै कहूँ ठेठ, ठोस अउ ठाहिल रहिबे त एकर अंग्रेजी खुदे खडे़-खडे़ ठुठिया जही। भलकुन तैं एकर लाने दू ठन अंगे्रजी ल तको सीख जबे। ये सगा ल बोझा झन समझ, भलकुन मया भरे स्वागत कर। देखबे, तोर मया के कोठी म ये खुदे बोजा जही। मैं तो कथांै – लड़ झन, अपन नेह (नीव) ल मजबूत कर। जेन घर के नीव मजबूत होथे ओकर पत्ता नई हालय अउ पत्ता तो पत्ता डारा हाले ले तको मजबूत पेड़ के ताग नई डोलय।
दादी के गोठ सुन भाई -बहिनी दूनों आसरा के मोटरी बोहे मोरे कोति देखे लागिस। मैं बीचैंधा म फँस गेंव- काकर मुड़के बोझा उतारवं ? पता नहीं उन का सोचिस ? का अरथ निकालिस ? उहीं मन जानै। मैं अंगठा ल टाँग के मुचमुचावत इसारा भर करेवं अउ मने मन कहेवं – डोन्ट वरी बी हैप्पी !

जय जोहार !!
धर्मेन्द्र निर्मल

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