जेन दिन किसान ‘भूले बिसरे एको दिन तो मोर अँगना म बरस रे बादर’ काहत चिरौरी पारथे वो दिन बेलबेलहा, बेंवारस अउ बिदरंग बादर अपन पीछवाड़ा म बाहरी बाँधके भाग जथे अउ पाके पुकाए किसानी म उही अनदेखना बादर बिन मौसम रदरद -रदरद बरसे लगथे।
बेरा -कुबेरा पानी-बादर, अचानक -भयानक मौसम परिवर्तन, बइहा बवंडर-उलेण्डा पूरा, दुनिया भरके ये भयंकर अउ विकराल रोग-राई के रेला, कइसे, काबर अउ कहाँ ले हो जथे ? येला किस्मत के खेल, जलवायु परिवर्तन, मनखे के अपन पाँव म कुल्हाड़ी मरई कहिन कि का कहिन-
भोगौ रे नर करम बेवहारा।
हरि को दोष मत देहू गँवारा।।
शहर के सड़क गाल म पावडर चुपर अउ होंठ म लिपिस्टिक पोत मटमटावत गाँव म अभर गे। गाँव के लजकुरहीन पैडगरी रद्दा, गँवइहा अउ खेतिहर किसान के माथा म चढ़गे। माने विकास के होंठ ले चमकुलिया हाँसी ह माथा म चढ़के चिंता के लकीर म बदल लवलगी -चटचटही करे लगथे। बंचक मन बरोबर पंचक अउ नवटप्पा बन पेरे लगथे।
पहिली गाँव म काकरो घर राहेर के दाल बनय ते पारा भर महक जावय अउ खार ले कोनो धनिया लावय ते गाँव भर म महर -महर गमक जाय। अब दाल के सोंध दँदरगे अउ धनिया के महक मोहर होगे। तब के जमाना म जब नाक म सोंध नइ आवय त लोगन काहय – तोर नाक पंचर होगे हे का रे ? अब वो बात लात खाए कुकुर कस दुरिहागे। दाल अउ धनिया के सोंध वातावरण के अंतस म मयारू के मया कस सँचरबे नइ करय। अउ कुछ हद तक नखराहा नाक तको पंचर होगे हे।
भोली-भली भलवन्तीन प्रकृति के स्वभाव बिलकुल बैहा, परबुधिया अउ अबोध लइका बरोबर होथे जऊन छिन म रिसाके रोए लगथे अउ रोते-रोवत मान के हाँसे तको लगथे। ओला जतके मया -दुलार देबे वो ह ओतके आरूग, पुष्टई, चक उज्जर अउ सफेद दूध अस दूआ देथे अउ चिटिक चिमटे-चटकारे म चिचियावत -किकियावत दुरिहा जथे। बड़े के आँखी ल देख के नीयत ल पढ़-समझ के ओकर संग ओइसनेहे बेवहार करथे।
ये बिन मौसम बरसात, उदुपहा भूस्खलन, भकुवाए भूकंप, बइहाए बवंडर, मनखे, समाज अउ देश-दुनिया ल रोवावत रोग-राई प्रकृति के रिसाए-गुसियाए के आरूग चिन्हा हरे। परि ़ आवरण दू शब्द ले बने पर्यावरण, वातावरण या प्रकृति जेकर मायने चारो मुड़ा ले ढँकाए होथे जेमा जम्मो जिनावर, पेड़-पौधा, धरती, पानी, आगी, हवा सबो आथे। पर्यावरण ल अमेरिका के सुजान हर्षकोविट्स ह परिभासित करत कहे हावय -‘पर्यावरण उन जम्मो बाहरी दशा अउ प्रभाव मन के जोड़ (योग) हरे जऊन हरेक जिनावर के जिनगी अउ विकास ल प्रभावित करथे।’
मनखे, जिनावर अउ समाज संग प्रकति के बीच जनम जन्मान्तर ले अइसे अतंर्सबंध हवय कि एक-दूसर के बिना काकरो एक के कल्पना करना बकवास, बरगलई अउ बइमानी के बूता भर हो सकत हे। काकरो भी नीयत म चिटको चुरपुर, चटपटहा अउ चटक भाव आए ले ओकर प्रभाव दूनो ऊपर छप-अछप, दृश्य-अदृश्य, प्रत्यक्ष-अप्र्रत्यक्ष दीखे लगथे।
जल, थल, वायु अउ जैव मंडल के सबले मुखिया अंग मनखे होथे जऊन ह जम्मो कोति के झेल ल सहिथे। मनखेच ह येला प्रभावित, नियंत्रित अउ परिवर्तित कर सकथे।
कोनो भी जगा या देश के स्वस्थ दशा अउ निश्चित विकास दिशा उहाँ के पर्यावरण के डोंगा म चढ़के पार होथे। बड़का -बड़का घर दुवार, ऊँच-ऊँच महल अटारी, चमचमावत सड़क अउ बोमियावत कारखाना भर ले कोनो देश विकसित नइ होवय। नाव खेवइया के चाकर-चौकोर अउ सजोर छाती भर दाहरा पार नई हो सकय एकर बर चोखा अउ पोठ पतवार के संगे-संग नाविक के चुस्त अउ चोखू होना तको गजब मायने रखथे।
चाणक्य कहे हे -‘राज्य के स्थिरता पर्यावरण के स्वच्छता ऊपर निर्भर करथे।’
इहीच बात ल आयुर्वेद के आदिगुरू चरक ह तको कहे हे कि ‘स्वस्थ जिनगी बर शुद्ध वायु, जल अउ माटी आवश्यक कारक हरे।’
पर्यावरण या प्राकृतिक वातावरण थोरको प्रदूषित होथे या पर्यावरण के कोन्हो भी तत्व म हेर-फेर होय ले प्रकृति रिसा-गुसिया जथे। प्रकृति के रिसाना-गुसियाना जड़-चेतन जम्मो के जिनगानी बर जमदरहा -जझरंगा प्रलय-प्रकोप लेके आथे। जम्मो जीव ऊपर एकर सीधा-उलट (प्रत्यक्ष रूप ले विपरीत) प्रभाव परथे।
पारिभाषिक रूप म वायु, जल, माटी आदि सबके अनबोला , अनमन अउ अवांछित पदार्थ के मिले-संघरे ले दूषित (गंदा) होना ल विज्ञान के सुजान सियान मन पर्यावरण प्रदूषण कहिथे।
वायु प्रदूषण ले साँस ले जुरे रोग, दमा, सर्दी-खाँसी, अंधापन, बहरापन होथे। अम्लीय बरसा होथे। जेकर ले माटी के उपजाऊपन कमतियाथे। ओग्गर -उज्जर देह वाली गोरी मेम कस दूधिया सफेद ताजमहल के रंग पींवराए के बड़का कारण अम्लीय बरसा हरे। आक्सीजन के एक अपरूप ओजोन परत के निजोर, अल्लर अउ धकपकाए ले सुरूज के प्रकाश म संघरे पराबैंगनी किरण भूइँया तक आके मनखे ल चर्मरोग अउ कैंसर जइसन जबर रोग होथे।
जल प्रदूषण ले टाइफाइड, पीलिया, हैजा, गैस्ट्रिक अउ लोकवा जइसन रोग संचरथे। इही प्रदूषित पानी के सिंचई, फल अउ साग भाजी के पौष्टिकता ल मार -मुरसेट के उल्टा जहरीला बनावत हे।
अइसन म ये लुदरू धनिया अउ दुलरू राहेर दाल कोन मेरन ले महमहाही।
किसानी म कीटनाशक, उर्वरक, रसायन मन के जादा उपयोग करे ले भूमि प्रदूषण होथे जेकर ले भूइँया बाँझ हो जथे, साग-भाजी, फूल -फर अउ खेती जहरीला हो जथे।
अलकरहा, अतलंग, अनियंत्रित, अबड़े तीव्र अउ असहनीय ध्वनि ले उपजे-जनमे ध्वनि प्रदूषण समाज ल बहरापन, सिरदर्द, चिड़चिड़ापन, उच्च रक्तचाप, अनिद्रा, स्नायुविक अउ मनोवैज्ञानिक रोग जइसन अनमोल उपहार देथे। येकर ले नवजात लइका मन शारीरिक विकलांग, गैस्ट्रिक, अल्सर, दमा, थकान अउ चिड़चिड़ापन जइसन रोग ले ग्रसित हो सकथे।
प्रकाश प्रदूषण अंधापन, दुर्घटना, दिमागी विकलांगता अउ सिरदर्द जइसन पेरूक रोग मन ल अब्बड़ बढ़नऊक अउ मयारू होथे।
ये सब प्रदूषण म बढ़ोतरी मनखे के जादा कमाए के लालच, लउहे आगू बाढ़े ललक, स्वार्थ अउ अनावश्यक ऊल-जुुलूल इच्छा के सेति होवत हे। येकर बर जतका लउहे हो सकय सबो ल मिलके कदम उठाए बर परही।
निवारणात्मक, उपचारात्मक अउ जागरूकता संबधी कदम उठाके, सत अउ ईमान से सिरतोन उदीम-उपाय करके ही येकर ले होवत हानि ले बाँचे-बचाए, सुधारे अउ नियंत्रित करे जा सकथे।
प्रदूषण ल रोके-थाम्हे बर आज कहूँ कोनो कदम नइ उठाबो त वो दिन दूरिहा नइहे जेन दिन मनखे अउ समाज तीरन सोचे विचारे अउ पछताए बर तको चिटको बेरा नइ बाँचही।
जय जोहार !!
धर्मेन्द्र निर्मल