इतवारी: खुमरी !!

अपन रूच जेवन, पर रूच सिंगार। ये बात ह मोर सुरता म चटक-मटक सज-सँवर के घूमत -फिरत-किंजरत रहय, त येकर पइरी के रूनझुन ह मोर कान म सुर धरे गुनगुनावत-गमगमावत -मटमटावत रहय। फेर ये सिंगार के सींग म मोर मन ह अरझगे रिहिस हे।
उही सींग ह लइका मन बरोबर मोला घेरी-बेरी हुदरय-कोचकय अउ एति -ओति अँगरी के इसारा करत देखावय। अब मैं कोनो महतारी तो नोहय जउन लइका के इसारा ल समझ लेतेवँ। आदम सुरता ल सोच, विचार अउ विकास के उमान चारा चराएवँ, सहरिया तकनीक के महकत इत्र छिटकाएवँ, त वो थोरिक फुन्नाइस।
पार्टी लेबल म ब्रेन वॉश करके फ्रेश-माइण्ड ले कुछ दिन विचार के झोला धरके चमचागिरी करत पीछु-पीछु घूमेवँ। गुनते-गुनत बड़ दिन बाद चिटिकन बात समझ सकेवँ। तब जाके गहिर बुद्धुजीव से उथली बुद्धिजीवी होएवँ। अब आप येला मोर भोकोलोलो बुद्धि के ’विकास की ओर एक कदम और’ कहौ या चाहौ त ‘एक बइला के गधा ले घोड़ा रूपांतरन’ कहिके बधई दे सकत हौ। मोला स्वीकार हे। हम सब सहि लेथन। हम तो जनम के अप्पत, घेक्खर अउ मुड़पेलवा मनखे अवन।
हमार ये सुभाव ल जलनकुकड़ा मनखे मन रूढ़िवादी कहि सकत हे त भलामानुस ह संतोषी सुभाव मानके संतोस के लेन-देन कर सकत हे। भले कोनो काँही कहि लेवय, कुछु सोच लेवय, फेर मैं मानथौं -पुन के बछिया के दाँत नइ देखे जाय। भई बधई, बधई होथे। हाँ त, एक बात समझ म आइस। मनखे तो सिंगार तको अपन रूच के करथे। ये अलग बात हे कि कोनो-कोनो ल खुलथे-फबथे त वोह उही ल चिमोट के धर-पोटार लेथे अउ उही ओकर पहिचान बन जथे।
तइहा एक ठो जिनिस रिहिस हे-खुमरी। खुमरी बाँस कमचिल के बनय। ओह छाता बरोबर गोल होवय। छाता म डाँड़ी होथे, खुमरी म नइ होवय। खुमरी अउ डाँड़ी के बीच नइ पटिस, छोड़-छुट्टी होगे हवय। खुमरी म ये सुविधा होथे कि ओला कनपटी कोति ले घेंच म लाके डाढ़ी तरी बाँधे जा सकथे। ओमा मनखे अपन हिसाब ले गोल-गोल, छोटे-छोटे दर्पण लगा लेवय। उप्पर ले कलगी लगाके ओकर सुघरई ल अउ चुक-ले सजा देवय। खुमरी कभू जिनगी के मैदान म एक हरफनमौला खिलाड़ी रिहिस हे। येकर कोनो दिन-बादर नइ होवत रिहिस हे। येला कोनो मौसम म पहिरे जा सकत रिहिस हे। खुमरी धूप अउ बारिस के सर्वश्रेष्ठ क्षेत्ररक्षक रिहिस हे। येला मुड़ म पहिरे ले मनखे धूप अउ बारिस दूनो ले बाँचे राहय।
राजा के मुड़ ल मुकुट सोभावय, त खुमरी ह खेत, खार अउ गाँव म मनखे के मान बढ़ावय। काम परे गधा ल बाप कहे बर लगथे। फेर मनखे के आत्मविस्वास सही, सजग अउ सजोर होवय त वोह अविस्कार कर लेथे। आवस्कता आविस्कार के महतारी होथे- ये कहावत ह उन्करे मन बर अवतरे हे। सिध मनखे हरेक जिनिस या बूता ल अपन सुध-बुध अउ सुविधा के अनुसार ओकर चोला ल छोल-चाँचके नवा रंग, रूप अउ आकार दे डारथे।
दुनिया गोल हवय, जिहाँ ले रेंगे रहिबे आखिर म उहेंचे पहुँच जबे कहिथे। कुछु भी चीज के इहाँ नवा जुन्नी होवत रहिथे। माने जऊन जिनिस आज हावय उही काली भेस बदलके फेर लहुट आथे। कोनो ह जादा मान पा जथे, कोनो ह कमती। ये दुनिया म कोनो भी जिनिस के मान-गऊन, चीन्ह-पहिचान अउ हितु-सुजान बर सबले बड़े हाथ बयपार अउ राजनीति के होथे। बयपार के समाए ले मान-गऊन, चीन्ह-पहिचान अउ हितु-सुजान तो दूर नीत-नियाव अउ मया -दुलार तको के बंठाधार हो जथे। उहेंचे राजनीति के घुसरे ले उचित-अनुचित सबो चारो कोना चित हो जथे।
बिचारा, सिधवा, डरपोकना अउ भोला-भाला गँवइहा खुमरी संग तको उही होइस। खुमरी वाले ल ‘काऊमेन’ माने गँवार होथे अउ टोपी वाले मन ‘जेण्टलमेन’ होथे कहिके चिढ़ाए-कुड़काए लगिस। खुमरी बिचारा कलेचुप गाँव के मुड़ ले उतरके सहर के मुड़ म आके खपला गे। हुसियार मनखे मन येला आनी-बानी के लालच देखाके, नवा नवा रंग-रूप देके टोपी बना दिन। आज उही खुमरी बयपारीमन के चकल्लस म फँसके एकर टोपी ओकर सर करे लगे हवय। कुछ मनखे मन बर येह अपन चाँद ल छुपाए-लुकाए के तको जिनिस बनगे हवय। ऊँच विचार, सहरिया पहनावा अउ विकास के बाना धरे ‘जेण्टलमेन’ मन के हुसियारी देखव, ‘काऊमेन’ ल टोपी पहिरावत-पहिरावत जम्मो गाँव, सहर अउ सरी जग ल टोपी पहिरा डारिन।

जय जोहार!!
धर्मेन्द्र निर्मल

लउछरहा..